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भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 65

चोल लोगों पर यह बड़ा आरोप लगाया जाता है कि वे वैष्णव विरोधी थे। इसको प्रमाणित करने के कोई ठोस साक्ष्य नहीं है। राजराज तथा राजेन्द्र चोल दोनों ने ही अनेक विष्णु मंदिरों का निर्माण करवाया था। नागपट्टनं में उन्होंने बौद्ध विहार का निर्माण करवाया था। पुडुकोट्टई जिले के सित्तनवसल में जो सिद्धों का केंद्र स्थान है, जैनों की सुरक्षा तथा सहयोगार्थ उन्होंने खुल कर मदद की। उसी स्थान से सिद्ध-प्रणाली की औषधि का प्रारम्भ हुआ। तमिल साहित्य में जैन लोगों का योगदान भी अत्यधिक रहा है।

English Writings of D V Gundappa - 20

One of the highlights of this volume is the longform titled The Code of Manu. DVG firmly believed that (i) tradition and modernity are mutually complementary (ii) such a mutuality is a sine qua non for civilized progress and (iii) the frequently projected dichotomy between the two is gratuitous and regressive. To this end, he spent a considerable part of his literary labours to elucidate the message of classical texts from a contemporary perspective.

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 64

पाप्ड्या, चोल एवं चेर

चोल लोगों का शासन तमिलनाडु के पूर्वी तट पर था, पाण्ड्याओं का दक्षिण भारत के मध्य क्षेत्र में तथा चेर लोगों ने पश्चिमी तट पर शासन किया । इन तीनों को ‘मुवेन्दिदर’ (तीन शासक) के नाम से जाना जाता रहा है। जहां चेर साम्राज्य था वह क्षेत्र आज का केरल प्रांत है। केरल द्वारा क्षात्र परंपरा को कोई सीधा योगदान नहीं दिया गया तथापि ज्ञानार्जन, अध्ययन और अध्यापन को पोषित करने और उसके अनुकूल परिवेश प्रदान कर उसने क्षात्र के एक अन्य पक्ष को अत्यधिक दृढ़ता प्रदान की।

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 63

कंपण द्वितीय का उत्तराधिकारी देवराय प्रथम था और उसका पुत्र विख्यात देवराय द्वितीय अथवा प्रौढ़देवराय था जो प्रौढप्रतापी’ की उपाधि से सम्मानित था। उसने बचे हुए दुश्मनों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया। उसने विजयनगर साम्राज्य की सीमाओं को और सुदृढ़ करते हुए नौसेना की शक्ति को भी बढ़ाया । उसने गोवा तक फैले समुद्री तट को पुनर्जीवित कर नये बंदरगाह तथा मालगोदामों का निर्माण करवाया। उसकी सेना का नेतृत्व आक्रामक लकण्ण दण्डेश कर रहा था। उसने पूरे साम्राज्य में एक नव चेतना का जागरण अभियान चलाकर लोगों को जागृत किया। उसने कला, साहित्य, धर्मशास्त्रों तथा विद्वानों को प्रश्रय तथा

Saṃskṛta-nāṭaka - Viśākha-datta - Mudrārākṣasa (Part 1)

We can gather quite a few biographical details about Viśākhadatta from the prastāvanā of his play Mudrārākṣasa; he was the grandson of Vaṭeśvara-datta and the son of Bhāskara-datta (or Pṛthu). However, it is quite difficult to ascertain who these men were and where they lived; it is also challenging to arrive at a fair estimate of the period in which they existed. The bharata-vākya of the play reads –

 

vārāhīm-ātmayonestanumavanavidhāvāsthitasyānurūpāṃ