History

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 43

गुप्तकाल का वास्तुशिल्प तथा मूर्तिकला

वास्तु शिल्प तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में गुप्तकाल में असाधारण कार्य हुआ था। आज भी गुप्तकालीन उपहार के रुप में अनेक गुफा मंदिर पाये जाते है [1]

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 42

यदि नवीन तथा नवीनतम शस्त्रों को विकसित किया जाता रहा जिससे सततरुप से शस्त्र भण्डार बढ़ता रहे तो लम्बे समय तक शांति-स्थापना की संभावना कहॉ रह जाती है ? सभी लोगों की आकांक्षा है कि पूरे विश्व में सब लोग उत्तम आचरण के साथ शांति पूर्ण जीवन व्यतीत करें किंतु क्या यह मात्र दिवास्वप्न नहीं है ? मात्र मौखिक रुप से शांति की घोषणाओं के दोहराने से तो सर्वव्यापी सर्वनाश को रोका नहीं जा सकता है। इससे तो विश्वनाश के उपरांत ही सब कुछ ठीक हो सकेगा !!

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 41

यही विशेषता हम वाल्मीकि तथा व्यास में भि देखते है – राम ने जिस तरह वाली को मारा था अथवा सीता का त्याग किया था, उसके बाद भी वे सम्मान के प्रतीक बने,रणभूमी में घटोत्कच के मारे जाने पर कृष्ण का खुशी से ताली बजाकर नाचने पर भी उन्हे पूजनीय मानना आदि ऐसे उदाहरण है जहां हमारे महापुरुषों का व्यवहार सामान्य सर्वमान्य मन्यतों से थोडा विचलित है और जिसे सुखद नही कहा जा सकता है, यह स्पष्ट करता है कि मात्र कुछ अरुचिकर कृत्यों के कारण किसी व्यक्ति को पूर्णतः अयोग्य मानना न केवल मूर्खतापूर्ण है अपितु दुर्भावनपूर्ण भी है |

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 39

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने जो भी निर्णय लिए तथा जो भी संबंध स्थापित किये थे वे सब शास्त्रानुसार तथा परम्परानुगत प्रथा द्वारा मान्य थे। उसके शासन काल में सनातन धर्म का उत्थान अपने चरम शिखर पर था जिसकी कोई तुलना नही की जा सकती है। उसके शासन काल में विभिन्न वर्णों के मध्य सामंजस्य के अनेक उदाहरण है। के.एम.मुंशी कहते हैं –

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 38

अपने छोटे भाई की सफलता के कारण रामगुप्त में ईर्ष्याभाव बढ़ने लगता है और वह अपने भाई को विभिन्न तरीकों से क्रूरता पूर्ण व्यवहार करता है। उसने अपने भाई की हत्या करने का षडयंत्र भी किया। एक रात अंधकार में छिपकर जब उसने चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य पर आक्रमण किया तो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने जिसे आक्रमणकर्त्ता की पहचान न होने से, पलटवार करते हुए रामगुप्त को मार डाला। बाद में उसने ध्रुवदेवी से विवाह कर सिंहासनासीन हो गया। यही सार संक्षेप में देवीचन्द्रगुप्त नाटक की कहानी है[1]

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 37

यह जानते ही विरूढक आपे से बाहर हो गया। ‘इन लोगो ने मेरे पिता को भी धोखा दिया और अब मेरा भी अपमान कर रहे है’ यह कहते हुए उसने संपूर्ण शाक्य समुदाय का ही नाश कर दिया। संक्षेप में यह उस समय के गणतंत्रों के मध्य के प्रेमसंबंधों, विश्वास तथा प्रजातंत्र की स्थिति को दर्शाने वाली एक कहानी है।

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 36

अतः उस समय क्या किया जा सकता था जब विदेशी आक्रांताओ ने युद्ध के सारे नैतिक मूल्यों (अर्थात् धर्म) की परवाह किये बिना हिंसात्मक आक्रमण किये। इस्लाम के रक्त रंजित आक्रमणों के समक्ष हमारी सभी युद्ध कौशल की योजनाऍ तथा राजनैतिक अनुमान अनुपयुक्त सिद्ध हुए। अनेक भागों की अपनी विशाल सर्वश्रेष्ठ कृति ‘इंडियन काव्य लिटरेचर’ में विशाखादत्त के मुद्राराक्षस के संबंध में लिखते हुए ए.के.वार्डर कहते हैं –

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 35

कालिदास ने अश्वघोष के कथ्य का रचनात्मक तथा सकारात्मक सुधारण किया था। समुद्रगुप्त ने भी यही सुधारण अशोक के संबंध में किया। हर किसी को इसे रचनात्मक सुधारण के रुप में समझने की आवश्यकता है। अशोक-कानिष्क – अश्वघोष की त्रयी तथा समुद्रगुप्त – चन्द्रगुप्त द्वितीय – कालिदास की तुलना से लाभान्वित हो सकते है। जिस प्रकार अश्वघोष अपने पश्चातवर्त्ती कवियों के लिए आदर्श न बन सके वैसे ही अशोक और कानिष्क भी अपने बाद के किसी बडे सम्राट के आदर्श नहीं बन पाये। जब कि कालिदास अपने पश्चातवर्त्ती प्रत्येक कवि के लिए ‘गुरु’ एवं ‘कवि- कुलगुरु’ सम पूज्य रहे है। उसी प्रकार समुद्रगुप्त तथा