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दत्तपदा / दत्तपदी - 1

अथाधिक्रियते दत्तपदाख्यः[1] प्रकारः । अयमपि पद्यप्रकारोऽवधानप्रपञ्चे चिरात् समास्थितः सम्मानितश्च । एष पुनरस्य संक्षिप्तः परिचयः । इह प्रष्टा पद्यरचनार्थं वस्तु वृत्तं च निर्दिशन् चत्वारि पद्यान्यपि प्रददाति यानि क्रमेण चतुर्षु पादेषु विन्यस्यता कविना पद्यं प्रणेयं भवति । अत्र प्रष्ट्रा तादृशानि पदानि देयानि यानि निर्दिष्टे विषये भाषायां च दुर्घटानि भवेयुः । अतोऽत्र प्रायेण प्रष्टारो भाषान्तरीयाणि पदानि प्रदाय परिपीडयन्त्यवधानिनम् । तादृशेषु पदेषु दत्तेष्वेव अयं समाह्वः स्वाम् अभिख्यां पुष्णाति । दत्तानि पदानि तेष्वेवार्थे

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 23

दुर्भाग्य से अशोक को कृष्ण के समान कोई मार्गदर्शक नहीं मिला और नहीं उसने बुद्ध के समान सत्य को पूर्ण समर्पित जीवन जीया। वह क्षात्र के पथ से भटक गया। मेरी दृष्टि में यह अशोक की एक गंभीर कमी है। एक विशाल साम्राज्य को स्थापित करने के उपरांत एक सम्राट को सतत रुप से धर्मदण्ड के माध्यम से असहायों की सुरक्षा तथा दुष्टों को दण्ड़ देना होता है। उस साम्राज्य का क्या भविष्य हो सकता है जिसका सम्राट घोषणा करता है ‘मै अब कोई युद्ध नही लडुंगा’ ?

ಗೋವಿಂದ ಪೈಗಳ ಕಾವ್ಯದ ಮರುನೋಟ - 7

{ಅತಿಶಯೋಕ್ತಿ} ಅತಿಶಯೋಕ್ತಿಯನ್ನು ಕಾವ್ಯಜೀವಾತುವೆಂದು ಆಲಂಕಾರಿಕರು ಪರಿಗಣಿಸುತ್ತಾರೆ. ಇದನ್ನು ಎಲ್ಲ ಅಲಂಕಾರಗಳ ಅಂತಸ್ತತ್ತ್ವವೆಂದೂ ಗಣಿಸುವುದುಂಟು.[1] ಮಹತ್ತನ್ನು ವರ್ಣಿಸುವಾಗ ಇದರ ವಿನಿಯೋಗ ಮಿಗಿಲಾಗಿ ಸ್ವಾಗತಾರ್ಹ. ಅಂಥ ಒಂದು ಸಂದರ್ಭವನ್ನು ವಿದ್ಯಾರಣ್ಯರ ಸ್ತುತಿಯಲ್ಲಿ ನೋಡಬಹುದು:

ಸತ್ಯದ ಭೂಮಿ ಧರ್ಮದಮೃತಾಂಬುಧಿ ಶುಷ್ಕತುರುಷ್ಕಕಾನನಾ-

ಭೀಲದವಾನಲಂ ನಿಖಿಲ ಕನ್ನಡನಾಡಿನ ಸೂತಿಕಾನಿಲಂ

ಶುದ್ಧಚಿದಂಬರಂ ಬೆರೆಯೆ ಪಂಚತೆಗಂದಿಗತೀತಪಂಚಭೂ-

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 22

चाणक्य यंहा दो शब्दों का प्रयोग करता है – ‘अपवाहयंति’ और ‘कर्षयंति’ अर्थात् ‘पूरीतरह से भक्षण करना’ और ‘उत्पीडित’ करना।

चाणक्य का कहना है कि यदि हम इन कठोर विपत्तियों से बचना चाहते है तो हमे अपने स्थानीय राजा की आवश्यकता है। सिकंदर के आक्रमण से जिस प्रकार उत्तर पश्चिम के राज्यों का विनाश हुआ था उसके उपरांत देश को जिस आशा और विश्वास की आवश्यकता थी वह चाणक्य के दूरदर्शी दृष्टिकोण द्वारा प्राप्त हुआ। चाणक्य ने न केवल एक शक्ति संपन्न साम्राज्य की स्थापना की वरन उसने भारत में सिंकदर के प्रतिनिधि सेल्युकस निकटार को भी हराया।