बुद्ध द्वारा प्रतिपादित सातगुण – सप्तशील
लिच्छवियों के प्रश्न के प्रति उत्तर में बुद्ध ने उन्हे सात सिद्धांतों का उपदेश दिया। इस विषय पर महान राष्ट्रप्रेमी और विद्वान सीताराम गोयल ने एक बहुत सुन्दर उपन्यास हिन्दी भाषा में लिखा है जिसका शीर्षक सप्तशील है[1]। बुद्ध ने लिच्छवियों को सन्बोधित करते हुए कहा “जब तक आप सब एकता के साथ खडे रहेंगे तब तक आपकी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रहेगी। आपकी स्वतन्त्रता तब तक बनी रहेगी जब तक आप अपने आन्तरिक मतभेदों को महत्त्व न देकर संस्थागार[2] में अपनी उपस्थिति देते रहकर प्रत्येक विमर्श में सक्रियता से अपना योगदान देते रहकर जब भी युद्ध की घोषणा हो तो अपने सभी काम छोड कर पूरे उत्साह के साथ उस क्षण में शास्त्र धारण करने को तैयार रहेंगे। जब तक आप अपनी मौलिक मान्याओं के नियमों का दृढता से पालन करते रहेंगे तब तक आपको किसी भी शत्रू से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। अपने बड़े और बुद्धिमानों का सम्मान करें, महिलाओं का सम्मान करें, अपनी पुरातन काल से सम्मानित परम्पराओं का दृढ़ता से पालन करें तथा उनका संरक्षण करें तथा विभिन्न दार्शनिक मतावलंबी आचार्यों का सम्मान करते हुए उनका अनुसरण करें। यह केवल वृजीगण के लिए ही नही अपितु किसी भी राष्ट्र को जीवित रहने के लिए आवश्यक है”।
प्रजातंत्र को जीवित रहने के लिए यह आवश्यक है कि उसके नागरीक सतत रुप से सजग रहे, क्रियाशील रहें और बौद्धिक उत्साह से युक्त रहें। युद्ध की घड़ी में सभी मत वैभिन्य को भुलाकर पूरा देश एक अविभाजित सेना के रुप में एक होकर खड़ा हो जाना चाहिए। बुद्ध ने इसी क्षात्र का उपदेश दिया था। उनके कथनानुसार देश के संरक्षकों को एक सेना के योद्धा की तरह सदैव सतर्क रहते हुए नैतिक मूल्यो पर आधारित जीवन यापन करना चाहिए।
यह सत्य है कि बुद्ध ने परिव्राजकीय जीवन को प्रचारित किया था किंतु उन्होने किसे यह उपदेश दिया? ‘विनय पिटक’ में बुद्ध ने स्पष्ट रुप से कहा है कि भिक्षुकों को युद्ध कौशल में पारंगत होना चाहिए और आत्म रक्षा में निपुण होना चाहिए[3]। ईसा की सातवी सदी में नालन्दा विश्व विद्यालय में आयुर्वेद तथा सैन्य कौशल आवश्यक विषय के रुप में छात्रों और सन्यासियों को पढाये जाते थे।
क्या अशोक को इन तथ्यों की जानकारी नहीं थी? वास्तविकता यह है कि ईसा की पेहले तीसरी सदी में बुद्ध धर्म का पतन प्रारम्भ हो चुका था। व्यक्तिगत रुप में अशोक ने अपने द्वारा की गई हिंसा का पश्चाताप किया यह प्रशंसनीय है तथापि उसके द्वारा अहिंसा को राज्य की सैन्य नीति के रुप में थोपना घोर अनर्थ कारक था। व्यक्तिगत रुप से वह एक असाधारण पुरुष माना जा सकता है तथापि राज्य के कल्याण की दृष्टिसे उसकी यह दुर्बलता सुस्पष्ट है। उसकी इस अनुपयुक्त नीति के कारण ग्रीक लोग पुनः सशक्त हो गये। क्षत्रपों का शासन प्रारम्भ हो गया जो मध्य भारतीय क्षेत्र उज्जयनी तक फैल गया। सौभाग्य से सनातन धर्म का सामाजिक-सांस्कृतिक – आध्यात्मिक ढांचा इतना मजबूत था कि उसने ग्रीक लोगों को आसानी से स्वयं में समाहित कर लिया। उन्होने उत्साह के साथ संस्कृत सीख कर वेद और इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होने पूर्ण हृदय से देश की संस्कृति को आत्मसात करने का प्रयास किया। यह इसलिए संभव हुवा क्योंकि ईसाइयों तथा मुस्लिमों के विपरीत युनानियों, सिथियन (शक), कुशाण लोगों के धार्मिक सिद्धांतो ने उन्हे ऐसा कर पाने की स्वीकृति दे रखी थी। यदि यह लोग भी ईसाइयों और मुस्लिमों की तरह धार्मिक कट्टरता से भरे होते तो पिछले हजार वर्षों का भारतीय इतिहास जो पूर्णतः रक्त रंजित रहा है – वह हमें उस समय की झांकी प्रदान करने में सक्षम था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]सीताराम गोयल ने सप्तशील उपन्यास, जवाहरलाल नेहरु द्वारा दी गई ‘पंचशील’ की नीति (हिन्दी-चीनी भाई भाई) की हानीप्रद निरर्थकता को स्पष्ट करने की दृष्टि से लिखा है। इस उपन्यास की भाषा श्रेष्ठतम है। ऊर्दू और फारसी युक्त शब्दों की गांधी द्वारा प्रचारित हिन्दुस्तानी भाषा जिसे गांधी नेहरु के हिंदू मुस्लिम भाई भाई के नारे के साथ पोषित किया गया और जिस कारण से पूरे हिंदीभाषा का आधार प्रदुषित कर दिया गया। हिन्दी का विकास बृज, मैथिली, अवधी और भोजपुरी के सम्मिश्रण से हुआ है जिसका मूल विभिन्न प्राकृत लोकभाषाओं या बोलियों में है जो मूलतः संस्कृत से उपजीवित हैं। ऊर्दू को देवनागरी में लिख कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया हैं कि यह भी हिंदी ही है। न तो मुसलमानों ने हिन्दी सीखी और न हिन्दुओं की हिन्दी जिवित रह सकी। आज हम खडीबोली कही जाने वाली भाषा का बनारसी, अवधी, मैथली और बुन्देलखण्डी भाषाओं के साथ कोई संबंध नहीं पाते है। यह सभी वोलियॉ भी प्रदूषित कर दी गई है। शुद्ध हिंदी को प्रचारित करने के उद्देश्य से सीताराम गोयल ने यह उपन्यास शुद्ध हिंदी में लिखा है। एक सामान्य दक्षिण भारतीय भी उसे आसानी से समझ सकता है। समस्त भारतवासियों के लिए सुविधाजनक होगा यदि हिन्दी में संस्कृत और प्राकृत मूल के शब्दों का बाहुल्य हो। भाषा के प्रदुषण के कारण ही तमिळ लोग हिन्दी का इतना तीव्र विरोध करते है। वास्तव में संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा वनाना चाहिए था। किंतु हिंदी के पक्षधर राजेन्द्र प्रसाद ने इसका विरोध किया। अम्बेडकर जैसे लोगों ने बहुत प्रयास किये किंतु वे संस्कृत को राष्ट्रभाषा बना पाने में असफल रहे। अम्बेडकर के एक अनुयायी मौर्य ने लिखा है – “संस्कृत के विरुद्ध मैने भारी हंगामा किया फिर भी अम्बेडकर की इच्छा संस्कृत को ही भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाने की थी। मैने अपने पूर्वाग्रहों के कारण मूर्खतावश इसका विरोध किया और एक भयंकर भूल की क्योंकि इसकारण से अम्बेडर को बिना अपनी इच्छापूर्त्ति के पीछे हटना पड़ा”। इस प्रकार से जो संस्कृत सभी भारतीयों को सहज में उपलब्ध हो सकती थी उसे हमसे दूर करदिया गया जिसके कारण उत्तर तथा दक्षिण भारत के मध्य संबंधों में वैमनस्य का आधार निर्मित हो गया
[2]गणतंत्र की केन्द्रीय सभा
[3]बौद्ध धर्म भारत से चीन, जापान, कोरिया आदि देशों में फैल गया। इन देशों में बौद्ध भिक्षुओं की युद्ध कला कौशल को अत्यंत सुन्दर रीति से अपनाया गया है। दुर्भाग्य से हमारे देशवासियों ने इसे पूर्णतः भुला दिया है