अर्थशास्त्र में क्षात्र चेतना
चाणक्य ने गणतांत्रिक व्यवस्था में जो भी श्रेष्ठ था उसे अपनाते हुए साम्राज्य की अश्वमेध की अवधारणा को भी पुनः लौटाया। इन दोनों का मूल वेदों में है। जरा सोचिए कि हिन्दू वैश्विक दृष्टिकोण में यज्ञ की अवधारणा कितनी विशाल और दूरगामी है ! जो भी इस उदारवादी अवधारणा का विरोध करता है उसे निश्चितरुप से परेशानियों का सामना करना होगा। यह सत्य है कि दार्शनिक दृष्टि से आन्तरिक यज्ञ, बाह्य कर्मकाण्डयुक्त यज्ञ से श्रेष्ठ है किंतु आंतरिक यज्ञ का अस्तित्त्व बाह्य यज्ञ के बिना संभव नहीं है। हमें देनों की आवश्यकता है। हमारे धर साफ सुथरे और सज्जायुक्त होना चाहिए तथा हमारे हृदय शुद्ध और आनन्द मय होना चाहिए। एक की भी अनुपस्थिति से अपूर्णता का भाव ही बनेगा।
महान काव्य कृतियों में, कथानक तथा उसके प्रस्तुतिकरण की संरचना में अच्छा सामंजस्य होता है। संरचनात्मक स्तर पर छंद, व्याकरण तथा शब्दों का चयन किसी भी कृति को सुन्दर बनाते हैं वहीं कथ्य के स्तर पर कृति का भावनात्मक संप्रेषण ‘रस’ तथा ‘ध्वनि’ द्वारा समृद्ध होता है। संरचना तथा श्रेष्ठता प्रदान करती है। इनमें से किसी भी एक को अलग नहीं किया जा सकता ।
शास्त्रीय संगीत में, वाणी का माधुर्य और उसकी गुणवत्ता, स्वर, स्तर स्थिरता, राग आवृति, स्वर शैली से भाव जागृति, राग के लक्षणों का विस्तार, नवपरिवर्तनकारी ढंग से मनोभावों का प्राकट्य आदि न केवल एक दूसरे के पूरक है अपितु अविभाज्य भी हैं। किंतु यदि इनमें से किसी एक तत्त्व का अध्ययन, विमर्श अथवा विश्लेषण किया जाए तो प्रत्येक का पृथक पृथक रुप से परीक्षण करना होता है। किंतु अनुभूति के आधार पर उन सबका कुल प्रभाव उनके एक्य में है।
यही बात प्रशासन पर भी लागू होती है। यह हमें चाणक्य ने अपनी प्रतिभा से स्पष्ट कर दिया। उन्होने अपने अबाधित प्रयासों से चन्द्रगुप्त के माध्यम से सिद्धांत को व्यावहारिक जगत में साकार कर दिया।
परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले तत्त्वों के सामंजस्य के राजनैतिक कौशल से ही चन्द्रगुप्त मौर्य एक बृहत्साम्राज्य का निर्माण करनें में सफल हो सका। उसने अनेक रण-योजनाऍ बनाई – जिनका सुन्दर विवरण ‘मुद्राराक्षस’ नाटक में वर्णित है। हम इन रणनीतियों और प्रतिरणनीतियों से क्या सीखते हैं? धर्म के लिए, बहुजनहिताय, दूरगामी कल्याण के लिए कभी कुछ अनुचित और अनैतिक तौरतरीकों का उपयोग भी करना पड़ता है। किंतु जो भी यह करता है उसे आवश्यक रुप से निस्वार्थी तथा समझदार होना चाहिए। यह कृष्ण द्वारा महाभारत में दर्शाया गया मार्ग है।
चाणक्य में हम कृष्ण का राजनैतिक कौशल देखते हैं। और इसके दो हजार वर्षों बाद इसे पुनः हम विजयनगर साम्राज्य के निर्माण में देखते हैं। इनके बीच के अन्तराल में हमें इस सिद्धांत का कोई विशिष्ट उदाहरण प्राप्त नही होता है, संभवतः इस दौर में ऐसी रणनीति की आवश्यकता न हुई हो। महाभारत युद्ध में कृष्ण ने यह ध्रुव सत्य घोषित किया ‘नीति की अपेक्षा धर्म श्रेष्ठ है, ऐसे समय आते है जब धर्म की रक्षा हेतु हमें नीति को गौण वरीयता देना पडता है’! यही तथ्य हम चाणक्य नीति में देखते हैं।
शास्त्र कहते है कि राज्य का कोशालय भरा होना चाहिए तथा राज्य में समृद्धि होना चाहिए[1]। एक राज्य किस प्रकार संपन्न हो सकता है ? ऐसे सभी प्रकरणों में चाणक्य ने बारम्बार कहा है - ‘अत्यधिक भलमनसाहत ठीक नहीं, मात्र चालाकी निरर्थक है, हमें मध्य मार्ग अपनाकर चलना होगा’
बाद में कालिदास ने रघुवंश में इस सूक्ति को दूसरे शब्दों में कहा – ‘केवल नैतिकता से व्याकुलता और भीरुता पैदा होती है और केवल निर्भीकता से पशुता[2]’। दण्ड़ तथा भय का अपना महत्त्व है। जब इस प्रकार के कथन कहे जाते है तो तत्काल ही कोई कह देता है कि आज के समय में अपराधों की कोई सीमा नही रही है। आदर्शवादी चिंतन करने के विलास के लिए भी हमें स्थायित्व आवश्यक है।
जिन श्रेष्ठ कार्यों को कर पाने में हम सक्षम नही हैं, वे दूसरे लोग कर लेंगें ऐसा सोचना मात्र मूर्खता है। और यदि कोई शुद्ध विचार और श्रेयस्कर तरीके से कार्यकर रहा है तो इसे एक वरदान मानना चाहिए न कि यह आशा पालना कि ऐसा हमेशा होता रहेगा। जब कोई हमसे हमारे संसाधन और अधिकार लेता है तब ऐसी सोच हम में आने की संभावना रहती है।
अपने अर्थशास्त्र के प्रारम्भ में ही चाणक्य कहते है कि ‘इस ग्रंथ का मूल उद्देश्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर विजय पाना है[3]’। संपूर्ण साम्राज्य का परिचालन सम्राट की निस्वार्थता पर निर्भर है।
यदाकदा और कोई विकल्प न होने पर एक अधिकार संपन्न व्यक्ति को जो निस्वार्थी है, संयमी है तथा समझदार भी है, कोयि हिंसात्मक कार्य करना जरुरी हो सकता है। ऐसे कार्य जनसाधारण के मध्य घोषणा करके नहीं किये जा सकते हैं। वर्तमान में हमारे जैसे बडे प्रजातांत्रिक में भी ‘गोपनीयता की शपथ’ लेना आवश्यक है। इसका क्या अर्थ है? इसमें पारदर्शिता कहॉ है? कोई भी मंत्री बिना गोपनीयता की शपथ लिए मंत्रीमण्डल का सदस्य नहीं वन सकता । प्रधान मंत्री, प्रधान मंत्री पद तथा राष्ट्रपति, राष्ट्रपति पद ग्रहण नहीं कर सकता, किसी भी शक्ति संपन्न संवैधानिक पद पर बिना गोपनीयता की शपथ लिए कोई भी पद ग्रहण नही कर सकता है। संविधानिक रुप से हर अधिकारी को राज्य की गोपनीयता स्वयं तक सीमित रखना पड़ता है। क्या यह सम्भव है कि सेना, विदेश नीति, आर्थिक गतिविधियों तथा अन्य गोपनीय जानकारियों को आम जनता में सार्वजनिक रूप से घोषित किया जाय और नही तो क्या यह गोपनीयता जनता के साथ छल नही है? किंतु यह देश व जनता के व्यापक हितों को दृष्टिगत रखकर किया जाता है। जब हम इस दृष्टिकोण से चाणक्य की घोषणाओं पर मनन करेंगे तो उसके सुझवों की व्यावहारिकता में हमें चाणक्य की महानता का अनुभव होगा।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]कोशवान् राजा
[2]कातर्यं केवला नीतिः शौर्यं श्वापद-चेष्टितम् (रघुवंश 17.47)
[3]कृत्स्नं हि शास्त्रमिदं इन्द्रिय-जयः (अर्थशास्त्र 1.6.2)