क्षात्र की भारतीय परम्परा में राजधर्म के दृष्टिकोण को समझने हेतु यंहा हमारे ग्रंथो से धर्म तथा अर्थ संबंधी कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं – अत्रिस्मृति तथा विष्णु धर्मोत्तर पुराण में निम्न पांच महायज्ञ राजा के कर्त्तव्य हैं – दुष्टों को दण्ड़, सज्जनों का सम्मान, न्यायोचित पथ से प्रगति और समृद्धि, जन आकांक्षाओं और प्रश्नों का पूर्वाग्रह रहित न्यायोचित निर्णय, भूमि संरक्षण[1] कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा गया है – सदैव सक्रिय रहना राजा का व्रत...
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शुक्ल यजुर्वेद का एक अन्य श्लोक निम्नानुसार है – मेरे कंधों में बल है, मेरी बुद्धि में बल है मेरी बांहो में, मेरे साहस में कर्म भरा है एक हाथ से कार्य करु, दूजे से शौर्य दिखाऊ मै स्वयं क्षात्र कहलाऊ[1] । इस प्रकार हम अनुभव कर सकते है कि वैश्विक हित में क्षात्र कितना महत्त्वपूर्ण है। यदि कोई क्षात्र भाव से युक्त्त है तो इसका यह अर्थ कदापि नही है कि वह अन्य को क्षति या चोट पहुंचाएगा। क्षात्र भाव हिंसा को प्रोत्साहित नही करता है अपितु इसके...
इन्द्र : क्षात्र का प्रमुख प्रतीक वेदो में इन्द्र को पुरन्दर कहा गया हा अर्थात् शत्रुओं के पुरों का जिसने नाश किया है। यंहा ‘पुर’ शब्द, शत्रुओं के नगरों और किलों के संदर्भ में पुयुक्त है तथापि यह उनके शरीरों के संदर्भ में भी प्रयुक्त हो सकता है। तब पुरन्दर शब्द का उपयोग ‘वह जो तीनों प्रकार के शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण) का नाश करनें में सक्षम हो’ के रुप में होगा। शिव को त्रिपुरारी इसी आशय से कहा जाता है। अतः पुरन्दर शब्द का अर्थ आध्यात्मिक...
जब कभी हम क्षात्र गुण की अनदेखी करते है तब कुछ ऐसे तथा कथित शांतिवादी लोग होते हैं जो इसे हिंसा से जोड़ कर इसे निर्दयी तथा अमानवीय समझते हैं। यह एक त्रुटियुक्त्त दृष्टिकोण है। बिना सुरक्षा ‘मात्स्यन्याय’ (अर्थात् बडी मछली छोटी मछली को खा जाती है) प्रचलन में आ जाता है। इस संबंध में महाभारत के शांतिपर्व में ‘राजधर्मप्रकरण’ पर विस्तृत विवेचना की गई है। हमें समझना होगा कि यदि व्यवस्था चाहिए तो दण्ड़ का प्रावधान आवश्यक है, दण्ड के प्रावधान से ही...
वैदिक काल पौराणिक आख्यान है[1] कि धननंद के शासन के साथ नदंसाम्राज्य के अंत के उपरांत इस धरा पर कोई क्षत्रिय नही रहा[2]। यह कहा गया कि जन्म से कोई क्षत्रिय नही बचा और जो बचे थे वे अन्य वर्ण के थे। यह अभिमत मान्य हो सकता है यदि हम ‘क्षत्रिय’ नामक चारित्रिक गुण को केवल वंश परम्परा में जन्म लेने से समझते हैं। नंद राजाओं से बहुत पहले महाभारत के अजगरोपाख्यान[3] में युधिष्ठिर का कथन है – “यह नहीं कहा जा सकता कि कोई भी वर्ण पूर्णतः शुद्ध और विशिष्ट है...
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श्री कृष्ण श्री कृष्ण को ब्राह्म-क्षात्र समन्वय का सर्वोत्त्कृष्ठ अनुकरणीय प्रतीक माना जा सकता है। उनके पूर्व प्रत्येक आदर्श का प्रतिनिधित्त्व भिन्न भिन्न व्यक्त्तियों द्वारा किया गया था। कृष्ण अकेले ऐसे हैं जिनमें ब्राह्म तथा क्षात्र की श्रेष्ठता चरम पराकाष्ठा प्राप्त करती है। शायद यही कारण है कि भारतीय परम्परा में उन्हें ‘जगद्गुरु’ और ‘पूर्णावतार’ के रुप में पूजा जाता है।  कृष्ण का बाल्यकाल गोकुल में नंद और यशोदा के सानिध्य में बीता जो साधारण...
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ब्राह्म और क्षात्र का समन्वय वैदिक काल से ही भारतीय परम्परा में ब्राह्म (ज्ञानभाव) एवं क्षात्र (शौर्यभाव) के समन्वय को एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है। वैदिक साहित्य में ब्राह्म तथा क्षात्र की धारणा को जाति की संकुचित परिधि में बांधना उचित नही होगा जो मात्र एक जन्मगत संयोग है। ब्राह्म और क्षात्र के यह दो सिद्दांत समाज को अग्रगामी बनाते हैं। यह श्रेष्ठता के वे प्रतीक हैं जो समाज के सभी वर्गों तथा स्तरों से प्रकट हो सकते हैं। अतः वास्तविक रुप में...
युद्दभूमि में बडे बडे योद्दाओं द्वारा प्राण त्यागने वाले वीरों को प्राप्त ‘स्वर्गलोक’ की अवधारणा में सनातनधर्म और सेमेटिक धर्मो के मध्य मूलभूत अन्तर है। उदाहरणार्थ इस्लाम में शहीद को जन्नत मे विलासिता का सुखभोग जैसे बहत्तर हूरों के साथ शारिरिक भोग का आश्वासन दिया गया है। इसके विपरीत भारतीय परम्परानुसार हमें असंख्य ऐसे ‘वीरागल’, अर्थात् बलिदानी की स्मृति में खड़े किये गये प्रस्तर स्तंभ मिलते है जिनके तीन भाग होते है। आधारभाग में रणभूमि में योद्दा...
अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण भारत सदैव से व्यापक स्तर पर बाहुल्यता की भूमि रहा है। विश्व भर के अनेक लोग भारत को श्रद्दा तथा आदर भाव से देखते रहे हैं, वहीं कुछ और भी थे जो इसे हड़प कर इसका स्वामित्व पाने की इच्छा रखते थे। पिछले दो हजार वर्षों से भारत पर विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण होते रहे, फिर भी विश्व की यह एकमात्र अखण्ड़ित सभ्यता है जिसका सांस्कृतिक इतिहास सात सहस्त्राब्दियों से भी अधिक पुराना है और जो आज भई...