श्री कृष्ण
श्री कृष्ण को ब्राह्म-क्षात्र समन्वय का सर्वोत्त्कृष्ठ अनुकरणीय प्रतीक माना जा सकता है। उनके पूर्व प्रत्येक आदर्श का प्रतिनिधित्त्व भिन्न भिन्न व्यक्त्तियों द्वारा किया गया था। कृष्ण अकेले ऐसे हैं जिनमें ब्राह्म तथा क्षात्र की श्रेष्ठता चरम पराकाष्ठा प्राप्त करती है। शायद यही कारण है कि भारतीय परम्परा में उन्हें ‘जगद्गुरु’ और ‘पूर्णावतार’ के रुप में पूजा जाता है।
कृष्ण का बाल्यकाल गोकुल में नंद और यशोदा के सानिध्य में बीता जो साधारण किसान तथा पशुपालक थे। परिणामतः कृष्ण, वासुदेव के नाम से पहचाने जाते हैं जो यादवों के प्रमुख है। एक विश से कैसे एक क्षत्र का उद्भव होता है, इसका वे श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
बाद में कृष्ण ने महर्षि सांदिपनी एवं घोर अंगिरस के आश्रय में ज्ञान में पूर्णता प्राप्त की। तदुपरांत अगले चरण में वे अपने ज्ञान और अनुभव को आत्म सात करते हुए गीताचार्य के शिखर पद पर प्रतिष्ठित हुए। इस प्रकार वे इसके सर्वोत्तम उदाहरण है कि किस प्रकार विश और क्षत्र का उन्नयन ब्रह्म तक हो सकता है।
अपने जीवनकाल में कृष्ण ने विभिन्न परिस्थितियों में कभी बांसुरी तो कभी शंख बजाया, कभी चक्र तो कभी रथ की डोर को थामा। इस प्रकार वे सत्त्व, रजस एवं तमस तीनों गुणों को फलित करने के मूर्तिमान स्वरुप बन गये। इसीलिए व्यास ने उन्हे धर्मवृक्ष का मूल स्त्रोत कहा है।
कृष्ण का संपूर्ण जीवन इस सत्य का विस्तृत विवरण है कि किस प्रकार एक पूर्णतः निस्वार्थ, विवेकवान सक्षम व्यक्त्ति द्वारा संपादित प्रत्येक कार्य से संपूर्ण विश्व स्वभाविक रुप से लाभान्वित होता है।
कृष्ण ऐसे महान व्यक्ति थे जिन्होने विश्व के समक्ष यह सुस्पष्ट घोषणा की थी कि यदि धर्मपथ पर चलते हुए काम और अर्थ की प्राप्ति की जावे तो ऐसा वैभवपूर्ण जीवन भी अंततः मोक्षोन्मुख होता है।
कृष्ण ने जगत, जीव और ईश्वर के दार्शनिक सिद्धांतों का अंतर विरोधहीन समन्वय किया। उन्होने अधिभूत तथा अधिदेव को अध्यात्म के अधीन दर्शाया। वे ऐसे महात्मा थे जिन्होने ‘अधियज्ञ’ नामक जीवन पद्धति का प्रतिपादन किया जिसमें जीवन को समस्त परिस्थितियों में परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। कृष्ण ने स्वयं अपने जीवन द्वारा राजकीय नीति के चार सिद्धांतों – साम, दान, दण्ड़, भेद के अत्यंत प्रभावी तथा प्रासंगिक निष्पादन का प्रदर्शन किया। कृष्ण ने घोषित किया कि दोषी को दण्ड़ एवं भले को सुरक्षा यह धर्म नामक सिक्के के दो परस्पर पूरक पहलू हैं।
अपने कार्य एवं व्यवहार में उन्होने सत्य, अहिंसा, क्षमा तथा उदारता के मूल्यों का समुचित आदर किया। यही कारण है कि भारतीय परम्परा में उन्हे समन्वय के ‘परमगुरु’ का सम्मान प्राप्त है।
धर्म प्रतिपादन के अपने सकल प्रयास में कृष्ण की निष्पक्षता अत्यंत कठोर है। उन्होने अपने ही उन लोगों का नाश किया जो दुष्ट थे जैसे कंस, शिशुपाल, दंतवक्र, विंदा, अनुविंदा और जरासंध। उन्होने दुर्योधन को भी नहीं छोड़ा जो संयोग से उनके ही पुत्र का श्वशुर था।
इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि वे रक्तपिपासु अथवा युद्धप्रेमी व्यत्त्कि थे। उन्होने शांति स्थापना करने के अपने सारे प्रयासों के विकल होने पर ही युद्ध का सहारा लिया और युद्ध की घोषणा होने के उपरांत उनका एक मात्र लक्ष्य था – शत्रू का नाश और अपने पक्ष की विजय प्राप्ति। कृष्ण ने अपने शत्रुओं के पुत्रों को भी गले लगाया यदि वे धर्मपथ पर थे, उदाहरणार्थ जरासंध पुत्र सहदेव तथा शिशुपाल पुत्र धृष्टकेतु।
इतना ही नही उन्होने धर्म भृष्ट यादवो को स्वयं दण्ड़ित किया। उन्होने अपने ही उन पुत्रों तथा पौत्रों का संहार कर दिया जो धर्म-सम्मत मार्ग का त्याग कर अधर्म के पथ पर चल रहे थे।
जब तक हमारे शासकों तथा राजनेताओं ने कृष्ण के मार्ग अपनाया तब तक कोई अन्तर विरोध नही हुआ और उन्हे विदेशियों के दासत्त्व की शर्मिंदगी नही झेलना पडी। जैसे ही हमारे शासको ने कृष्ण के निर्देशों से स्वयं को दूर किया, भारत को सभी प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ा। स्पष्टतः हमारे समस्त संकटों का एकमात्र निवारक, कृष्ण द्वारा प्रदत्त आदर्श एवं मान्यताओं में निहित है [1]।
चाणक्य
ब्राह्म – क्षात्र समन्वय का दूसरा ज्वलंत उदाहरण भगवान चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य है। दोनो ने ही कृष्ण के आदर्श तथा मान दण्ड़ों को आत्मसात किया था। जिस प्रकार चाणक्य की प्रबल इच्छाशक्त्ति, ज्ञानशक्त्ति तथा क्रियाशक्त्ति ने चन्द्रगुप्त को एक शूद्र से अजेय क्षत्रिय में रुपांतरित कर दिया, वह अद्वितीय है।
जिस प्रकार चाणक्य ने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की तथा अर्थशास्त्र लिखा वे कृष्ण के जीवन तथा भगवद्गीता प्रदत्त ज्ञान के विस्तृत व्याख्या है। चाणक्य मात्र सिद्धांतशास्त्री ही नही थे अपितु उन्होने वास्तविकता के धरातल पर अपने सैद्धांतिक बीजों का रोपण कर एक अत्यंत फलदायी फसल प्राप्त की।
चतुर चाणक्य ने यह समझ लिया था कि भारत जो उस समय परस्पर लड़ते हुए गणतंत्रों में विभाजित था वह संगठित ग्रीक आक्रमणकारियों का सामना कर पाने में सक्षम नहीं है। अन्य शब्दो में इन गणतंत्रों का कोई भविष्य नही था। भारतवर्ष की आदर्श राजनैतिक व्यवस्था हेतु एक ऐसे संप्रभुता प्राप्त साम्राज्य की आवश्यकता थी जो हिमालय से रामसेतु तक फैला हो। तदनुसार चाणक्य ने इस दिशा में कार्य करते हुए सफलता प्राप्त की। यह हमें याद दिलाता है कि किस प्रकार कृष्ण ने भी यादवों की गणतंत्र व्यवस्था की कमजोरियों को समझते हुए पाण्ड़वों के माध्यम से एक विशाल भारतीय साम्राज्य ती स्थापना की थी।
बृहद भारतीय साम्राज्य संबंधी चाणक्य के दूरदर्शी प्रयासों के कारण भारत वर्ष में विदेशी आक्रमणकारी धुसपैठ नही कर सके और भारतवासियों की सुरक्षा तथा शांति सुनिश्चित हो सकी। इतिहास से ज्ञात होता है कि जैसे ही चाणक्य के आदर्शों को भुलाया गया, मौर्य साम्राज्य भी कईं टुकड़ों में विभाजित हो गया।
विद्यारण्य
वैभवशाली विजयनगर साम्राज्य के वास्तु शिल्पी स्वमी विद्यारण्य भी एक ऐसे ज्वलंत उदाहरण हैं जिन्हे कृष्ण तथा चाणक्य के समान ही प्रतिष्ठा प्राप्त है। तुलनात्मक रुप से वे निकटवर्त्ती समय में हुए है अतः उनका महत्त्व अतिरिक्त्त रुप से बढ़ जाता है। सन्यास प्राप्त करने के पूर्व वे ‘माधवाचार्य’ के नाम से प्रसिद्ध थे।
उनसे एक वर्ष छोटे उनके अनुज सायण भी उन्ही के समान तेजस्वी थे। उस काल की साहित्यिक कृतियों में वर्णित है कि यज्ञ और युद्ध दोनों ही विधाओं में दोनो भाई अतुलनीय थे। दोनो भाई अनेक विषयों के ज्ञाता थे तथा उन्होने अनेक विद्वता पूर्ण ग्रंथों की रचना की थी। ब्राह्म के आदर्श को सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक स्तर पर उन्होने गगनगामी ऊंचाइयों तक पहुंचाया था। उन्होने हिन्दू धर्म के पुनर्उत्थान हेतु पांच संगम भाइयों – हरिहर, कंपन, बुक्का, मारप्पा तथा मुद्दप्पा में क्षात्र की संभावित आवश्यकता को पहचाना।
गड़रिया समुदाय के पाँचो संगमा भाइयों ने पूर्ण समर्पण के साथ माधवाचार्य तथा सायणाचार्य से दीक्षा प्राप्त कर मंत्रालय का संचालन भी उनके मार्गदर्शन में करते हुए सनातन धर्म का पुनरुत्थान, पोषण तथा सुरक्षा के कार्य को अभूतपूर्व ढंग से संपन्न किया ।
कृष्ण ने कौरवों जो भारतीय ही थे, विरुद्ध लड़कर उन्हे समाप्त किया था। चाणक्य ने ग्रीक तथा नौ दुष्ट नंदों के विरुद्ध संघर्ष किया था। उसी प्रकार स्वामी विध्यारण्य ने संगम भाइयों की सहायता से कट्टर धर्मंध मुस्लिमों के विरुद्ध युद्ध कर विजय प्राप्त की थी।
पूर्वकालीन विजयों की तुलना में विद्यारण्य की विजय का एक अति विशिष्ट महत्त्व है। पूर्व की विजयों के दो प्रमुख लक्षण थे – पहला धर्मविजय अर्थात् हारे हुए राजा द्वारा शरणागति स्वीकारने पर उसे पुनः राजा बना दिया जाता था और दूसरा अर्थ विजय अर्थात् विजेता द्वारा संपूर्ण राज्य की संपत्ति का हरण कर हारे हुए राजा को राज्य लौटा दिया जाता था। तथापि विद्यारण्य द्वारा प्राप्त विजय का एक विशेष लक्षण असुरविजय था जिसमें पराजीत राजा को मारकर, उसकी सारी धन संपदा का हरण कर उसके पूरे परिवार को बंदी बना लिया गया था। इसके अतिरिक्त्त इस्लामिक शासकों द्वारा बलप्रयोग से धर्मान्तरण के अभिशाप से उन्होने इस भूभाग को मुक्त्त किया। विजयनगर के हिन्दू साम्राज्य को जिस तरह विद्यारण्य ने आने वाले दशकों तक सुरक्षित किया यह उनकी श्रेष्ठतम उपलब्धि थी।
विध्यारण्य का यह कथन प्रसिद्ध है कि –
‘केवल आत्मज्ञानी महापुरुष ही किसा राज्य का संचालन उचित ढंग से कर सकता है’ विद्यारण्य स्वामी में हमें ब्राह्म और क्षात्र का सर्वोत्तम संगम देखने में आता है[2]।
उनके द्वारा प्रेरित ब्राह्म के पथ का प्रतिनिधित्त्व समर्थ रामदास द्वारा तथा क्षात्र पथ का प्रतिनिधित्त्व छत्रपति शिवाजी द्वारा किया गया।
इस प्रकार ब्राह्म तथा क्षात्र के पारस्परिक समन्वय ने ही भारतीय अस्मिता का पोषण तथा सुरक्षा की है। जबतक हम इन आदर्शों को आत्मसात नही करेंगे, हम हिन्दुओं का कोई भविष्य नहीं है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]भगवान कृष्ण के विस्तृत विवरण हेतु "शिव राम कृष्ण" पुस्तक का अवलोकन करें। प्रेक्षा प्रकाशन, बेंगलोर द्वारा प्रकाशित
[2]ज्ञानिना चरितुं शक्यं सम्यग्राज्यादिलौकिकम् (पंचदशी, 9:114)