वैदिक काल
पौराणिक आख्यान है[1] कि धननंद के शासन के साथ नदंसाम्राज्य के अंत के उपरांत इस धरा पर कोई क्षत्रिय नही रहा[2]। यह कहा गया कि जन्म से कोई क्षत्रिय नही बचा और जो बचे थे वे अन्य वर्ण के थे। यह अभिमत मान्य हो सकता है यदि हम ‘क्षत्रिय’ नामक चारित्रिक गुण को केवल वंश परम्परा में जन्म लेने से समझते हैं। नंद राजाओं से बहुत पहले महाभारत के अजगरोपाख्यान[3] में युधिष्ठिर का कथन है –
“यह नहीं कहा जा सकता कि कोई भी वर्ण पूर्णतः शुद्ध और विशिष्ट है, वर्णों में पहले ही अत्यधिक सम्मिश्रण हो चुका है”
पाण्डवों को भी शुद्ध रुप से क्षत्रियों का वंशज नही कहा जा सकता क्योंकि वे पांडु के जैविक पुत्र नही थे अतः हमें जन्म के स्थान पर वैयक्त्तिक गुण को महत्त्व देना होगा।
इस गुण का आविर्भाव प्रकृति (स्वभाव) तथा संस्कार के संयोग से होता है। कभी कभी यह जन्मजात भी होता है, कभी यह उस परिवेश के कारण उभरता है जो इसका पोषण करता है। कभी यह गहन अध्ययन या प्रेरण से भी उभर आता है। अतः ‘गुण’ के वास्तविक स्त्रोत को सुनिश्चित करना असंभव है। ‘क्षात्र’ जन्म पर नही अपितु गुण आधारित है। यदि हम इस गुण को जन्मजात कहते है तब भी इसका किसी विशिष्ट परिवार में जन्म लेने के संयोग से कोई संबंध नही है, इसका मात्र इतना ही अर्थ है कि कोई व्यक्त्ति विशेष में यह गुण उसके जन्म के समय से है।
भगवद्गीता में कृष्ण का कथन है :-
“मैने समाज को गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णों में वर्गीकृत किया है[4]”
शंकराचार्य सहित सभी पारम्परिक व्याख्याकारों ने ‘गुण’ को जन्म से जोड़ा है। भले ही महान शंकराचार्य ने कहा हो तो भी मै पूरे आदर के साथ इस मत से असहमत हूं। इसका कारण बहुत सीधा और सरल है क्योंकि यदि हम ‘गुण’ को मात्र जन्माधारित मानते है तो अनेक गंभीर संकर उत्पन्न होंगे। अतः ‘गुण’ के इससे उपर उठकर समझना होगा। ऐसा ही हम वस्तुतः देखते भी हैं। गुण की पहचान होने पर इसे प्रोत्साहित कर उसे और भी पुष्ट किया जा सकता है। जैसा कि मैने स्पष्ट किया है कि ‘गुण’ एक उत्कृष्ट गुणवत्ता है जिसकी झलक हम अपने शास्त्रों, इतिहास तथा पुराणों के साथ साथ वर्तमान समाज में भी देखते हैं।
क्षत्रिय शब्द का उद्गम
क्षत्रिय शब्द, मूलशब्द ‘क्षि’ से उत्पन्न हुआ है। इसके अनेक अर्थ हैं :- क्षय, हिंसायाम् और निवास – गत्योः[5] । सही मूल के संबंध में मत भिन्नता है। ‘क्षय’ शब्द भी बहुअर्थी है जैसे कि निवास, शरणस्थल, या ठिकाना। तदनुसार क्षत्रिय वह है जो शरण देकर सहायता करता है और समृद्धि का विकास करता है। हिंसायाम् मूल से क्षत्रिय का कर्त्तव्य ‘बुराई का नाश’ करना है। स्मृतियों[6] में क्षत्रियों का उपनाम वर्मा (कवच) दिया गया है अर्थात् क्षत्रिय वह है जो सुरक्षा करके हमें बचाता है।
अन्य संदर्भ में क्षत्र का अर्थ संपदा एवं समृद्धि से संबद्ध है। सामान्य जन को सुख-शांति चाहिए जो संसाधनो युक्त्त आश्रय द्वारा प्राप्त होती है। यदि कोई देश समृद्ध होना चाहता है तो पहले उसे आंतरिक तथा बाह्य सुरक्षा की आवश्यकता है, तदुपरांत उसे अपने संसाधनों का विकास करना है। यदि देशके पास अच्छे संसाधन है तो वह अपनी सुरक्षा सुह्ढ़ कर सकता है। यदि देश सुरक्षित है तो संसाधनों में और विकास हो सकता है। इस प्रकार दोनो परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। जो देश आर्थिक रुप से सुह्ढ़ है, स्वाभाविक रुप से वह अच्छी तरह सुरक्षित भी है। जो देश असुरक्षित है वह कभी समृद्ध नही हो सकता है।
वाल्मीकिरामायण के अयोध्याकाण्ड़ के 67 वें अध्याय[7] में ऐसे अनेक श्लोक हैं जिनका प्रारम्भ – ‘नाराजके जनपदे....... शब्दों के साथ होता है। अर्थात् जंहा राजा नही होता है......वंहा......| हजारों वर्ष पूर्व वाल्मीकि ने राजा विहीन देश में उत्पन्न संकटों का वर्णन कर दिया था जो हर शासन व्यवस्था पर समान रुप से लागू होता है। और इसे हम आज भी देख सकते हैं।
जब भी लोकसभा निर्वाचन के परिणाम घोषित होते है – शेयर मार्केट में उछाल या मंदी देखने में आती है, इससे स्पष्ट है कि निर्वाचन परिणामों का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है।
एक देश कभी भी विकास नही कर सकता है यदि वह बाहरी युद्ध या आंतरिक अशांति से जूझ रहा है। हमारे शास्त्रों में किसी देश की आंतरिक कठिनाइयों के उत्पन्न होने के छः कारण बतलाये गये हैं – (1) राजा द्वारा (2) अपराधियों, चोरों और डकैतों द्वारा (3) महामारी द्वारा (4) जीवाणुओं, कीटाणुओं, इल्लियों, चूहों, कीट-पतंगो तथा अन्य प्राणियों द्वारा (5) अतिवृष्टि, अनावृष्टि और अकाल द्वारा (6) आगजनी या दावानल द्वारा[8]
किसी देश के विकास का एक अच्छा संसूचक उसकी अर्थव्यवस्था है। अतः एक क्षत्रिय का मूलभूत चारित्रिक लक्षण संपदा की सुरक्षा तथा उसका समुचित पोषण करना है। इन दोनो को अलग नही किया जा सकता । गीता में कृष्ण अपने आश्रित के ‘योग’ और ‘क्षेम’ को वहन करने का दायित्त्व स्वीकार करते है[9] तब वे योग अर्थात् आवश्यकताओं की आपूर्ति और क्षेम अर्थात् सततरुप से उस प्राप्ति की सुरक्षा की घोषणा करते हैं। ‘क्षि’ के अन्य मूल ‘शरण’ अथवा निवास द्वारा क्षेम का अर्थ सुखद और मंगलमय स्थिति से है। यंहा क्षात्र शब्द का अर्थ समृद्धि के संदर्भ में योग अर्थात् प्राप्ति है।
शब्द शास्त्रानुसार क्षत्रिय शब्द का अर्थ ‘क्षतात् त्रायते इति क्षत्रियः’ अर्थात् ‘जो क्षति अथवा घाव से बचाता है वह क्षत्रिय है[10]’ ।
क्षात्र परम्परा का मूल लक्षण यह है कि वह धर्म का संपोषण करता है, अन्य शब्दो में कहे तो वह निवहि – प्रक्रिया को सुनिश्चित करने वाले गतिशील संतुलन का प्रबंधन करता है। क्षत्रिय की मूल वृति में रजस की प्रतीति होती है तथापि उसका स्थायी भाव सत्त्व होता है। सामान्य रुप से विष्णु को ‘ऋत’ के देवता अर्थात् ब्रह्मण्ड के संचालक के रुप में जाता है। अन्य देवताओं की विभिन्न वर्णों में स्थापना करते हुए विष्णु को क्षत्रिय वर्ण में वर्गीकृत किया गया है। इसी प्रकार उनके भाई इन्द्र की भी तेजस्वी क्षत्रियों में गिनती होती है[11]। वेदो में विष्णु, इन्द्र तथा अदिति और कश्यप के 12 पुत्रों जो आदित्य नाम से जाने जाते हैं, प्रमुख रुप से क्षत्रियों के गुणों को प्रदर्शित करते है। ब्रह्म जो सृष्टि के रचयिता हैं मुख्यतः रजस है, जो सृष्टि रचना हेतु आवश्यक भी हैं। विष्णु का मुख्य गुण सत्त्व है। वस्तुतः क्षात्र में सत्त्व तथा रजस का संगम होना ही है जिसमें रजस का परिचालन सत्त्वाधारित हो।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]नन्दान्तं क्षत्त्रिय-कुलम्…
[2]महानन्दिनः… ततः प्रभृति शूद्रा भूपाला भवन्ति ( विष्णु पुराण 4.24. 20,21) तथा महानन्द-सुतश्चापि शूद्रायां कलिवंशजः | उत्पत्स्यते महापद्मः सर्व क्षत्रान्तको नृपः | ततः प्रभृति राजानो भविष्याः शूद्र योनयः (मत्स्य पुराण 171. 17,18)
[3]महाभारत 3.180. 31-33
[4]चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | (भगवद्गीता 4.13)
[5]क्षत्रिय शब्द की उत्पत्ति से संबंधित अधिक जानकारी के लिए कृपया डा. सरोज रानी की पुस्तक, ‘क्षत्रियों’ की उत्पत्ति एवं विकास (विश्वविध्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1996) का अवलोकन करें
[6]जैसे मनुस्मृति (2.31,32)
[7]वाल्मीकि रामायण 2.67,9
[8]पाठान्तरों मे अलग छः कारण बतलाये गये हैं अतिवृष्टिरनावृष्टिर् मूषकाः शलभाः खगाः | अत्यासन्नश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः ||
[9]योगक्षेमं वहाम्यहम् (भगवद्गीता 9.22)
[10]क्षतात्किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः| राज्येन किं तद्विपरीत वृत्तेः प्राणैरुपक्रोश मलीमसैर्वा || (रघुवंश 2.53)
[11]बृहदारण्यकोपनिषत् 1.4.11-15 और उसके संबन्धित शाङ्करभाष्य को देखिये