chanakya
कालिदास ने अश्वघोष के कथ्य का रचनात्मक तथा सकारात्मक सुधारण किया था। समुद्रगुप्त ने भी यही सुधारण अशोक के संबंध में किया। हर किसी को इसे रचनात्मक सुधारण के रुप में समझने की आवश्यकता है। अशोक-कानिष्क – अश्वघोष की त्रयी तथा समुद्रगुप्त – चन्द्रगुप्त द्वितीय – कालिदास की तुलना से लाभान्वित हो सकते है। जिस प्रकार अश्वघोष अपने पश्चातवर्त्ती कवियों के लिए आदर्श न बन सके वैसे ही अशोक और कानिष्क भी अपने बाद के किसी बडे सम्राट के आदर्श नहीं बन पाये। जब...
जब नाग वंश के लोग अत्यंत शक्ति शाली हो गये थे तथा सनातन धर्म के लिए संकट उपस्थित कर रहे थे तो समुद्रगुप्त ने उन्हे ठण्ड़ा कर सौम्य प्रत्यायन द्वारा प्रभावित करते हुए उन्हे सनातन धर्म के महत्त्व को समझाया जिसके फलस्वरुप नागर ब्राह्मणों का उदय हुआ। मनुस्मृति तथा अन्य ग्रंथों में जिस समन्वयता का वर्णन है वह गुप्त काल में थी। समुद्रगुप्त की यह विशेषता रही कि उसने जिन भी राजाओं को हराया, उनसे उनका राज्य न अधीन कर पुनः उन्हे ही शासक बनाया। ऐसा प्रतीत...
अनेक विद्वानो के निर्णायक लेखन से युक्त, अनेक भाग वाले विशाल ग्रंथ ‘द हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इंडिन पिपल’ में गुप्तकाल का वास्तविक तथा सुस्पष्ट इतिहास दिया गया है। इसके प्रमुख संपादक आर.सी. मजूमदार का ‘द क्लासिकल एज’ नामक आलेख तथा इस ग्रंथ के प्राक्कथन में के.एम.मुंशी ने गुप्त काल की अत्यधिक प्रशंसा की है। मुंशी ने इस असाधारण वैभव का कारण धर्म का आधार निरुपित किया है।  यंहा यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि धर्म का अर्थ मत, पंथ अथवा संप्रदाय से नही है...
क्षात्र की आवश्यकता समुचित रुप से युद्ध तथा शांति, दोनो समय में होती है। इसके अनेक उदाहरण हम अपने देश के भूतकाल में देख सकते है। इसी क्षात्र के दर्शन महाभारत काल में कृष्ण और अर्जुन में होते है। युद्ध तथा शांति काल मे इसी प्रकार के क्षात्र संतुलन के दर्शन हम चन्द्रगुप्त मौर्य, पुष्यमित्र शुंग, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त, पुलकेशी, शीलादित्य हर्षवर्धन, भोज, राजराज चोल, राजेन्द्र चोल, बुक्कराय, प्रौढ़देवराय,...
गुप्त वंश का स्वर्णिम युग यह पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि क्षत्रियता के गुण में आनुवांशिकता का अधिक महत्त्व नहीं है। तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी इतिहासकारोने इतिहास के इस तथ्य को जानबूझ कर छिपाते हुए यह षडयंत्रकारी प्रचार किया कि ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों ने मिलकर अन्य वर्णों के प्रति भेदभाव करते हुए उनका दमन किया। इसका सत्य से दूर का भी संबंध नही है तथा इस आरोप का कोई आधार नहीं है। गुप्ता लोगों का संबंध वैश्य वर्ण से है। विश्व, वैश्य, वेश...
भारतीय क्षात्र परम्परा में हम मुख्य रुप से सभी संप्रदायों के सुन्दर समावेशन के दर्शन करते है । संप्रदायवाद से ऊपर उठना ही सनातन धर्म की आन्तरिक रुपरेखा है। इस व्यापक दृष्टिकोण के अभाव में क्षात्र भाव केवल क्रूरता का पर्याय बन जावेगा। इस्लाम में यही तो हुआ है। और यही ईसाइयत की संघर्षगायाओं से ज्ञात होता है। ऐसा क्या था कि ऐसी कोई घटना भारत में नही हुई? इसका कारण यही है कि सनातन धर्म एक संप्रदाय विशेष का अंग होने के बाद भी यह प्रदर्शित करने में...
यह स्थिति सनातन धर्म में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य तथा कुमारगुप्त के समय तक भी बनी रही। ऐतिहासिक ग्रंथों तथा अभिलेखों से ज्ञात होता है कि ईसा की पांचवी तथा छठी शाताब्दी तक इस प्रकार का सांस्कृतिक समायोजन तथा समावेश सफलता पूर्वक होता रहा था। अन्य देश, समुदाय तथा संस्कृति के लोग भारत में आये और उन्होने अपनी पसंद के अनुसार वर्ण धारण कर लिया चाहे वह ब्राह्मण, वैश्य अथवा अन्य वर्ण हो। उदाहरण स्वरुप उत्तर भारत के नागर-ब्राह्मण जिनके उपनाम नागर, भटनागर...
उस समय में वेदों का अनुसरण करने वालों ने भी बौद्ध धर्म का बहिष्कार नहीं किया था। सातवाहनों ने न केवल सांची स्तूप के द्वारों का निर्माण करवाया अपितु अमरावती ने एक पूरे स्तूप का निर्माण भी करवाया। उसके कुछ अंश चेन्नई, एगमोर के शासकीय संग्रहालय तथा ब्रिटिश संग्रहालय में प्रदर्शनार्थ रखे हैं[1]। दिखाई दे रहा है वैसा तो उस समय राजगुरुओं के मध्य भी नहीं था। संभवतः संप्रदाय विशेष की भावना से प्रेरित कुछ मतावलम्बी रचनाकारों की कृतियों ने अन्य पंथो के...
भगवान बुद्ध के जीवन की इस घटना को देखें। एक दिन बुद्ध के विश्वास पात्र तथा संबंधी (गृहस्थजीवनका) विख्यात आनन्द अपने साथ यशोधरा (बुद्ध के पूर्वाश्रम मे की पत्नी) को लेकर बुद्ध के समक्ष उपस्थित होकर कहने लगा “गुरुजी! महिलाओं को भी सन्यास की दीक्षा प्रदान कीजिए!” । जब बुद्ध ने उत्तर दिया ‘नही! यह नही हो सकता है’ तब आनन्द ने पूछा ‘आप महिलाओं को सन्यास की दीक्षा क्यों नहीं दे सकते है ? क्या आप ही नहीं कहते हैं कि सब लोग समान? तब बुद्ध बोले ‘नही !...
ऐसी ही घटना को आज हम गांधी-नेहरु काल में देख रहे हैं – यदि नेहरु जैसा व्यक्ति गांधी का उत्तराधिकारी हो सकता है तो यह गांधी के सिद्धांतों की वास्तविकता को दर्शाता है। जब हम देखते हैं कि किस प्रकार सुभाषचंद्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल और राजगोपालाचारी जैसे सुयोग्य व्यक्तियों पर दबाव डाल कर उन्हे हटा दिया गया तो यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधी किसके पक्ष का समर्थन जुटाने में संलिप्त थे। भूतपूर्व जोधपुर विश्व विद्यालय के दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक डा....