यत्र तत्र इस बात के भी संदर्भ मिलते हैं कि ग्रीक महिलाओं को भारत में काम पर रखा जाता था। श्यामिलक की पुस्तक ‘पाद-ताडितक-भाण’ में कुसुमपुरा में रहने वाले ग्रीक व्यापारियों का वर्णन है। ’मालविकाग्निमित्र’ में कालिदास ने लिखा है – “सिंधु नदी के दूर छोर पर पुष्यमित्र शुंग के पौत्र वसुमित्र ने ग्रीक सेना के विरुद्ध संघर्ष किया था”, किन्तु इन सब में कहीं भी सिकंदर का सन्दर्भ नहीं है। यह आक्रमण सिकंदर के उत्तराधिकारियों द्वारा उसकी मृत्यु के लगभग 150-200 वर्षों बाद किया गया था। हमारे कवियों तथा नाटककारों ने सिकंदर के आक्रमण को हीं भी एक बडे आक्रमण की मान्यता नहीं दी है। यदि वे ऐसा मानते तो कहीं न कहीं उनकी रचनाओं में इसका संकेत अवश्य दिया जाता। उस काल में लिखि गई अनेक कृतियों में जंहा अनेक घटनाओं का विस्तृत विवरण दिया गया है वहा हमारे पूर्वजों ने जो सूक्ष्म द्रष्टा तथा सजग पुरा-आलेखों के संग्रह कर्त्ता रहे है. – सिकंदर को यदि विशेष महत्त्व नहीं दिया है तो इसका कोई तो कारण होना चाहिए। संभवतः सिकंदर के आक्रमण का भारतीय इतिहास पर कोई दूरगामी प्रभाव का न होना ही इसका एक सीधासा कारण हो सकता है।
युद्ध में सिकंदर क्यों हारा? इस संबंध में कईं अनुमान हैं। शायद सैन्य विद्रोह के कारण, सैनिकों की थकान अथवा भय के कारण जो मगध साम्राज्य की अतुलित सैन्य शक्ति की कहानियों को सुन कर फैल गया और इसी कारण सिकंदर को भारत छोड वापस भागना पड़ा। सारांश में हमारे पूर्वजों ने विदेशी आक्रमण के विरुद्ध असीमित किलाबंदी उपस्थित कर दी थी वह भी तब जब उस समय भारत किसी एक सम्राट के नेतृत्त्व में एक नहीं था। भारत के कुछ भूभाग के विभाजित राज्यों (सोलह बडे राज्य) में आक्रमण का सामना नहीं किया जा सका। सिकंदर उन सभी क्षेत्रों में जीता जंहा गणतांत्रिक राज्य थे। कहा जाता है कि उसने मद्रगण, यौधेयगण और मालवगण को हराया था। अपनी पूर्ण स्वतंत्रता के अंधप्रेम में इन गणतंत्रों के मध्य इनके पडोसी राज्यों सो कभी भी मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं रहे।
कुछ लोगों ने यह आधारहीन तर्क प्रस्तुत किया है कि गणतंत्र का विचार वेदों में अनजाना था और यह आज के पतनोन्मुख साम्यवाद का प्रारम्भिक प्रारुप है। गणतंत्र वैदिक काल से है इसमें संदेह की कोई संभावना नही है। ऋगवेद में वर्णित पंच जन समुदाय – गणतंत्र ही हैं। अनेक शब्द तथा धारणाएँ जैसे गण (जाति, समूह, समुदाय, पलटन, गणतंत्र), गणपति (गणनायक), सभा (समाज, समागम, दरबार, परिषद), समिति (समागम, कमेटी, संघ, समूह), सदस (समागम, निवास, मिलन स्थल) आदि सब वैदिक है। महाभारत में जिन यादवों, गांधार और मद्र लोगों का वर्णन है वे सब ही गणतंत्र थे। यह सभी संस्थान क्षीण हो चुके थे इसी कारण से कृष्ण ने पाण्डवों द्वारा एक साम्राज्य की स्थापना की थी। इसी प्रकार की कल्पना चाणक्य ने भी की थी, फलतः चन्द्रगुप्त मौर्य सम्राट बन गया। इसी प्रकार पतंजली ने पुष्यमित्र शुंग को एक महान साम्राज्य स्थापना हेतु निर्देशित किया। बाद में शायद कालिदास ने भी ये संकेत दिया है कि बडे साम्राज्य का स्थापन समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वारा सप्पन्न हुआ तथा गणतंत्रों की निरर्थकता पर अनुच्चरित टिप्पणी व्यक्त की।
ग्रीक इतिहास में भी हम ऐसा ही पाते हैं। एक समय में ग्रीक लोग शहरीराज्य की अवधारणा रखते थे। यह भारतीय गणतंत्र के समरुप व्यवस्था जैसी ही थी। स्पार्टा, एथेंस, माइसिनिया, अर्गोस – प्रत्येक शहर अपने आप में एक राज्य था। वे इस प्रकार रहते थे जिसमें पडोसी शहरी राज्य से मैत्री तथा सद्भावना पूर्ण संबंध बनाये रखना लगभग निषिद्ध था। जब पर्शिया की शक्तिशाली सेना के आक्रमण का संकट आया तब एथेंस के नेताओं तथा बडे लोगों ने इकट्टा होकर सुझाव दिया “हम सब एक राष्ट के रुप में मिलकर अपने दुश्मन का सामना करें”! स्पार्टा के लोग अत्यधिक साहसी और उतावले थे और युद्ध कौशल में वे अद्वितीय थे, उन्होने कहा “अपनी सुरक्षा हम स्वयं कर लेंगे” और वीरतापूर्वक पर्शिया की विशाल सेना से लडने सबसे पहले आगे आगये। किंतु आंतरिक मतभेदों के कारण ग्रीक लोगों की हार हुई और उन्हे पर्शिया का प्रभुत्त्व स्वीकार करना पड़ा। परिणामतः बदले की आग में बड़ा हुआ सिकन्दर अपने पिता फिलिप द्वितीय के साथ एक साम्राज्य की स्थापना हेतु कार्योन्मुख हुआ क्योंकि वह जानगया था कि गणतांत्रिक व्यवस्था निष्प्रभावी है। यह सब पूर्ण स्वतंत्रता के अंध मोह तथा दूरदर्शिता के पूर्ण अभाव का परिणाम था।
जब कोई सम्राट अपने साम्राज्य का विकेन्द्रीकरण करता है तो उसका पतन होना अवश्यम्भावी है यदि वह अपनी एकक्षत्र संप्रभुता का उपयोग करते हुए सभी क्षेत्रों पर अपनी आंख और कान को सतर्कता से खुले रखकर सतत रुप से संपर्क बनाते हुए मैत्री संबंध नही रखपाता है। इसका उदाहरण हमें अशोक के काल में मिलता है। सिकंदर जैसे महत्त्वाकांक्षी के प्रकरण में भी जब वह विश्व विजय कर विशाल साम्राज्य स्थापित करने निकला था फिर भी उसकी संप्रभुता का असामयिक अंत हो गया। अतः यदि सिकंदर भारत के कुछ भूभागों को हराने में सफल होगया था तो उसका मूल कारण गणतांत्रिक व्यवस्था में निहित कमजोरियॉ थी न कि वह क्षात्र धारणा की असफलता थी।
वैदिक परम्परा में एक वैचारिक धारणा है कि प्रजाजनों का कितना भी बडा योगदान हो फिर भी राजा ही सर्वेसर्वा होता है। निर्दभीराजा वेन की कहानी का स्मरण कीजिए जिसका पूर्व में उल्लेख हो चुका है। उसकी दमित प्रजा इतनी अधिक उग्र हो गई थी कि उन्होने राजा को सिंहासन से अपदस्त कर दिया। किंतु एक साम्राज्य बिना राजा के अथवा उसके विकल्प के नहीं रह सकता अतः उन्होने वेन को पुनः स्थापित करदिया। इसके उपरांत तो वेन पूर्णतः निरंकुशता के साथ अपने आतताई कृत्यों में संलग्ग हो गया। अन्ततः उसकी दुष्टता को सहन न कर पाने के कारण सब ऋषियों ने मिलकर उसे पदच्युत कर दिया और वेन के पुत्र पृथु को राजा बनादिया। पृथु के राज्य में समृद्धि तथा सुख सुविधा का बाहुल्य था। कहा जाता है कि उसने अति कोमलता के साथ गोदोहन की तरह पृथ्वी से संपदा अर्जन की थी।
पृथ्वी ने सोचा कि वेन जैसे दुष्ट राजा के शासन में जन कल्याण का क्षय होगा अतः उसे ऐसे राजा की प्रभुता स्वीकार न करते हुए उसके समर्थकों कोई सुविधा प्रदान नही करना चाहिए और ऐसे राजा को उसकी ओर से कोई मदद न हो इस भय से उसने अपने में बोये गये सभी बीजों को निगल लिया। पृथ्वी पूर्णतः बंजर होकर सूख गई। पृथु ने फिरसे पृथ्वी को उपजाऊ तथा कृषि योग्य बनाया। उसने सभी संसाधनों को पुनः जीवित किया। अतः जब भी कभी कोई संस्थान क्षयोन्मुखी हो तब उसका कोई विकल्प अवश्य होना चाहिए।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.