भारतीय सम्राटों की साहित्यिक विद्वत्ता
सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन के स्वयं के लेखन से यह ज्ञात होता है कि अपने जीवन के उत्तरार्ध के वर्षों में उसमें बौद्ध धर्म के प्रति अत्यधिक अभिरुचि हो गई थी। आज भी हर्षवर्धन द्वारा लिखे गये तीन नाटक उपलब्ध है। उसने कुछ स्तोत्र तथा स्वतंत्र रूप से कुछ श्लोकों की रचना भी की थी। उसके नाटक – प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानंद – विद्वानों तथा सामान्य जनों में समान रूप से प्रसिद्ध है। प्रियदर्शिका तथा रत्नावली रंगमंच पर दृश्य काव्य ‘नाटिका’ के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। यह दोनों ही कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्र’ की विश्वसनीय अभिव्यक्तियां है। दोनों ही कथ्य तथा प्रस्तुति की दृष्टि से अति सुन्दर है जिसकी संरचना और कथानक श्रेष्ठ है। यद्यपि वस्तु की दृष्टि से यह कृतियाँ इतनी गहन नही है तथापि कवि ने जटिलताओं को भी बहुत सुन्दर ढंग से निभाया है । प्रियदर्शिका में तो नाट्य की नवीन विधा का परिचय दिया गया है जिसमें नाटक के अन्दर नाटक द्वारा कहानी कही गई है – यह प्रयोग ‘गर्भांक’ इस नाटक की विशेषता है रत्नावली में घटनाओं को सुन्दर ढंग से एक साथ ग्रथित करने का कौशल देखने में आता है। दोनों नाटकों की भाषा तथा शैली भी मनोहारी है।
मम्मट के ‘काव्यप्रकाश’ के कुछ टिप्पणीकारों ने दावा किया है कि यह कृतियाँ वास्तव में धावक नामक एक कवि द्वारा रचित है तथा हर्षवर्धन ने उसे धन देकर अपने नाम कर लिया। मेरे मत में यह तर्क असंगत लगता है। हर्षवर्धन स्वयं एक बड़ा विद्वान व्यक्ति था। ऐसे अनेक उदाहरण है जहां भारतीय राजाओं ने वास्तव में अद्भुत साहित्यिक कृतियों की रचना की है
इस प्रकार का सृजन केवल प्राचीन काल में ही नही अपितु निकटवर्ती काल में भी होता रहा है। आंध्र क्षेत्र की अन्तर्गत पिठापुरं का राजा आनंदगजपति इसके सुंदर उदाहरण है। महान शतावधानी द्वय ‘तिरुपति वेन्कटकवुलु’ [चळ्ळपिल्ल वेन्कटशास्त्री तथा दिवाकर्ल तिरुपतिशास्त्री] ने अपने ग्रंथ ‘नानाराजसंदर्शन’ में लिखा है कि आनन्दगजपति बहुत बड़े व्याकरणाचार्य थे। उनके इस कथन का समर्थन अनेक विद्वान कवियों तथा शतावदानियों द्वारा किया गया है जिसमें काशी कृष्णाचार्य, माडभूषि वेंकटाचार्य और देवलापल्ली भाइयों का नाम उल्लेखनीय है। इसी प्रकार की योग्यता वाले राजा आत्मकुरु, विक्रमपुरी तथा वनपर्ती में भी थे। विजयनगर राज्य के शासकों ने भी मेक्स मूलर द्वारा संकलित एवं संपादित ऋग्वेद को सायण की टीका के साथ प्रकाशित करने हेतु आर्थिक सहायता प्रदान की थी।
कोचीन राज्य के राजा उच्च स्तरीय विद्वान रहे है। आज भी कोचीन के राजा द्वारा विद्वत्सभाओं, संगोष्ठियों का आयोजन किया जाता है। वे स्वयं वेदांत, तर्कशास्त्र और व्याकरण की ‘वाक्यार्थ’ में सक्रियता से भाग लेते है। कोचीन राजा ने स्वयं संस्कृत व्याकरण के महापंडित एन.टी. श्रीनिवास अयंगार का परीक्षण कर उन्हें ‘पंडितराज’ की उपाधि से विभूषित किया था।
इसी प्रकार त्रावणकोर की राज्य में भी अनेक बडे विद्वान राजा हुए है जिनमें स्वाति तिरुनाल, मूलं तिरुनाल, कार्तिक तिरुनाल और विशाखा तिरुनाल के नाम सम्मिलित है। ये सब विद्वान कवित्व की प्रतिभा से युक्त थे। आज भी इस राजघराने में अनेक साहित्य तथा संगीत के विशेषज्ञ मिल जायेंगे।
मैसूर के महाराजागण भी असाधारण विद्वान रहे है। कृष्णराज वोडेयार तृतीय अनेक श्रेष्ठ ग्रंथों के लेखक थे। कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ एक पारंगत संगीतज्ञ थे। उसके पिता चामाराजेंद्र वोडेयार X (दसम) एक प्रशिक्षित वायलिन वादक थे। जयचामराजेन्द्र वोडेयार ने कई संगीत रचनाऍ निर्मित की तथा वे अनेक विद्वता पूर्ण कृतियों के लेखक थे। हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे[1]।
हम यह दावा नहीं करते है कि हर राजा कवि था किंतु इसकी संभावना अत्यधिक प्रतीत होती है कि हर्षवर्धन एक विद्वान कवि था। ऐसे राजा भी रहे है जिन्होंने अन्य कवियों की कृतियों को अपने नाम से दर्शाया किंतु यह इतना सरल भी नही था अन्यथा हर राजा ऐसा कर पाने में सफल हो जाता जबकि स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है।
हर्षवर्धन के गुण तथा उसकी सीमाएं
नागानंद सौंदर्य तथा संवेदनाओं से भरा एक उच्च कोटि का नाटक है। इसमें श्रृंगार रस, धर्मवीर तथा दयावीर के साथ हास्य रस का समावेश भी है। प्रत्येक दृष्टि से यह एक श्रेष्ठ नाटक है। हर्षवर्धन द्वारा लिखित किसी भी नाटक में बौद्ध धर्म को महिमा मंडित करने का प्रयास नहीं किया गया है। तथा नागानंद में भी केवल प्रारम्भ में बोधिसत्व की प्रशंसा में प्रार्थनात्मक श्लोक ही मिलता है। और अंत में सभी को गौरी का आशीर्वाद प्राप्त होता है जो सनातन धर्म की देवी है न कि तारा भगवती जैसी बौद्ध देवी ! हर्षवर्धन के अन्य नाटकों में भी प्रारम्भिक श्लोकों में शिव वंदना के ही श्लोक मिलते है। इस बात के ऐतिहासिक अभिलेख है जो यह दर्शाते है कि जब प्रयाग में हर पांच वर्षों में हर्षवर्धन दान करता था तो वह वहां शिव, विष्णु, सूर्य, बोधिसत्व तथा शक्ति की पूजा भी करता था। बाणभट्ट जो हर्षवर्धन का आस्थान कवि था एक पारम्परिक ब्राह्मण तथा बडा शिव भक्त था। मयूर नाम का अन्य सनातनी कवि भी हर्षवर्धन के दरबार की शोभा बढ़ाता था तथा उसके द्वारा सूर्य पर लिखा ‘शतक’ जो अब भी अपनी भव्य शैली के लिए प्रसिद्ध है। इससे यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है हर्षवर्धन किसी भी दृष्टि से धार्मिक कट्टरता से पूर्णतः मुक्त था।
अपने जीवन के उत्तरार्ध में संभवतः उनका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर अधिक हो गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके प्रशासन का नियंत्रण कमजोर होता गया, अनुपयुक्त दया तथा उदारता बढ़ने से क्षात्र भाव में भी गिरावट आ गई। अशोक में कलिंग विजय के उपरांत वैराग्य जागा था किंतु हर्षवर्धन का वैराग्य नर्मदा तट पर चालुक्यों द्वारा उसकी पराजय का परिणाम था। चालुक्य राजा दक्षिणापथ परमेश्वर सत्याश्रय पुलकेशी द्वितीय ने उसे हराया था। संभवतः इसी कारण यह कहा जाता है कि जो युद्ध जीतता है वह हारता है तथा जो युद्ध हारता है वह मर जाता है। अशोक युद्ध जीत कर भी हार गया। यदि कलिंग युद्ध में लाखों लोग मारे गये तो उसमें अशोक के सैनिक भी तो बडी संख्या में मारे गये होंगे जिसने अशोक को विचलित कर दिया था। हर्षवर्धन भी अपनी हार की हताशा को झेल नहीं पाया[2]।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]इसके बाद भी भारतीय राजाओं की उपलब्धियों का अपमान करने वाले दुर्भावनायुक्त तर्क दिये जाते है। उदाहरणार्थ कहा जाता है कि “कृष्णदेवराया ने अल्लसानि पेद्दन को ’आमुक्तमाल्यदा’ के लिए धन दिया था अन्यथा कैसे पेद्दन के ‘मनु चरित्रम्’ के प्रारंभिक श्लोकों में कृष्णदेवराया की प्रशंसा ‘आमुक्तमाल्यदा’ में दोहराई जा सकती थी?”। किंतु ‘आमुक्तमाल्यदा’ और ‘मनु चरित्रम्’ में भाषा और शैली की दृष्टि से इतना अन्तर है कि व्यावहारिक दृष्टि से दोनों कृतियाँ एक ही कवि द्वारा लिखा जाना लगभग असंभव है। कृष्णदेवराया ने अपनी कृति में स्वयं की प्रशंसा करने में संकोच किया होगा और किसी पश्चातवर्ती कवि ने ‘आमुक्तमाल्यदा’ की पांडुलिपि में पेद्दन की यह प्रशंसात्मक श्लोक उसमें जोड़ दी। इस विषय पर हम विस्तार से ‘भोज देव’ पर विमर्श के साथ कर सकते है।
[2]ऐसे समय में हर कोई अल्पकालिक सांत्वना का साधन ढूंढता है किंतु सांत्वना प्राप्ति के उपरांत यदि वह यह सोचता है कि यही जीवन का दर्शन तथा सांत्वना स्त्रोत है तो वह बहुत बड़ी भूल करता है।और जब कोई ऐसी वैचारिक सोच को पूरे देश पर थोपता है तो यह सर्वथा अनुचित है।
यदि अशोक को वैराग्य हुआ था तो उसे शासन की बागडोर अपने किसी पुत्र या अन्य योग्य व्यक्ति को सौंपकर प्रशासन से निवृत्ति ले लेना चाहिए था। किंतु वह शासनारुढ़ रहा और अभिलेखों के अनुसार वह कभी भी पूर्णकालिक बौद्ध भिक्षु नहीं बना।हर्षवर्धन भी वैराग्य भाव आने के बाद भी सिंहासन पर बना रहा। आदर्श स्थिति तो यह है कि राजा में वैराग्य भाव जागृत होते ही उसे राज्य का कार्यभार किसी सुयोग्य व्यक्ति को सौंपकर निवृत हो जाना चाहिए क्योंकि ऐसे वैरागी राजा जब अपने वीतरागी विचारों को अपनी प्रजा तथा प्रशासन पर थोपते है ते देश का शौर्य नष्ट हो जाता है और देश का अधःपतन होने लगता है।
नेहरू ने अशोक और हर्ष के पथ का अनुगमन करके चीन युद्ध में घोर अपमान का अनुभव देश को दिया। इस युद्ध के पहले तक नेहरू चीन के साथ ‘पंचशील’ का नारा लगाते रहे। यह पंचशील की नीति तो बुद्ध के मौलिक सिद्धांतों के अनुरूप भी नहीं थी।