महाभारत में दुर्योधन वध के पूर्व श्री कृष्ण युधिष्ठिर को समझाते है कि युद्ध में कपटी, चालाक तथा दुष्ट दुश्मन को उसी के तौर तरीकों से हराना आवश्यक हो जाता है[1]।
जब दुर्योधन वैशम्पायन तालाब में छिपा हुआ था, और वहां से बाहर आया तो युधिष्ठिर ने उसे अपने पसंद के किसी भी शस्त्र के साथ किसी भी पाण्डव से लडने हेतु आमंत्रित किया इसपर श्रीकृष्ण ने उसे समझाया कि पूर्व में जुआ खेलते समय की मूर्खता को वह पुनः न दोहरावे! यह युद्ध है! इसमें ऐसी मूर्खता उचित नहीं है[2]।
युधिष्ठिर की यह छद्म बुद्धिमानी भारत में युगों से चली आ रही है तथा हमारे देश के विनाश का कारण बनती रही है। यथार्थ के प्रति सतत रूप से जागरूक रहने की जो कृष्ण नीति है वही हमारे देश के लिए सुरक्षित तथा हितकारी है।
इस्लामिक आक्रमणों के विरुद्ध अदमनीय हिन्दू प्रतिरोध
पृथ्वीराज चौहान दिल्ली का अंतिम हिन्दू शासक था। लाल किले को मूल रूप से निर्मित उसी ने किया था। विद्वानों के मतानुसार इस्लाम के आक्रमणों ने इसके स्वरूप को बदल दिया।
पृथ्वीराज रासो की कथानुसार पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को सन् 1191 की प्रथम लड़ाई में हरा कर उसे माफ कर मुक्त कर दिया था। गौरी ने छल का सहारा लेकर पृथ्वीराज को दूसरी लड़ाई में हरा दिया तथा उसकी आंखे निकाल कर उसे अंधा कर दिया था। कहानी कहती है कि अपने कवि चंदबरदाई की प्रेरणा से पृथ्वीराज चौहान ने शब्दभेदी बाण से गौरी को उसी के दरबार में मार दिया था। तथापि इतिहासकार इस कहानी की सत्यता के ठोस साक्ष्य पाने में असफल रहे हैं।
हमारे सम्राट चाहे जितने भी महान साहसी और शौर्यवान योद्धा रहे हों उन्होंने हमेशा अपनी अनुचित उदारता के कारण सब कुछ गँवा दिया। इस प्रकार का अनपेक्षित औदार्य, हमारी उदासीनता, विलासिता तथा पूर्ण रूप से अनभिज्ञ रहने का परिणाम था। विश्व के सम्मुख अपने आप को महान आदर्शवादी बतलाने की वृत्ती का जो नशा हमारे अग्रगण्य लोगों में रहा है उसका भारी संकट हमारे देश को सदैव भोगना पड़ा है।
यही वृत्ति नेहरू की बेतुकी नीतिगत हरकतों में प्रदर्शित हुई है। गांधी द्वारा की गई घातक भूल का मूल कारण भी यही प्रवृत्ति रही है। ऐसे कई महान आदर्शवादी लोग हुए है जो अन्य द्वारा बुरे अथवा गलत प्रमाणित न होने के भावनात्मक दौर्बल्य से पीड़ित रहे हैं। यदि श्री कृष्ण भी इन्ही की तरह सोचते तो क्या दुष्परिणाम होते ?
आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में सिंध पर मोहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण किया था। तेरहवीं शताब्दी तक दिल्ली तथा उसके आसपास के क्षेत्र में गुलाम वंश तथा खिलजी वंश की सल्तनत पूर्णतः स्थापित हो चुकी थी। अपने प्रथम आक्रमण से साम्राज्य को सुदृढ़ स्थापना करने में इस्लामी सैन्य बलों को लगभग पांच सौ वर्ष का समय लगा क्योंकि इस समयावधि में उन्हें हिन्दूओं द्वारा तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा था। यही कारण रहा कि इस्लामिक प्रशासन सिंध-पंजाब, दिल्ली तथा उसके आसपास के क्षेत्रों के अतिरिक्त प्रभावकारी ढंग से विकसित नहीं हो सका। इसी से भारतीय क्षात्र भाव की शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है जो सतत रूप से दृढ़ता के साथ इन मुस्लिम आक्रमणों के विरुद्ध खड़ी थी जिसके परिणामतः छः सौ वर्षों में भी अनवरत युद्ध करते रहने पर भी मुसलमान शासक भारत के कुछ ही भूभाग पर अपना आधिपत्य जमा सके।
के. एम. मुंशी लिखते है –
‘कान्हा ददे प्रबंध’ में पद्मनाभ ने (सन् 1456) अलाउद्दीन खिलजी की सेना के अत्याचारों का वर्णन किया है जो सभी तुर्क आक्रांताओं पर समान रूप से लागू होता है कि किस प्रकार गांवों को जलाया गया, पूरे भूभाग को नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया, लोगों की संपदा को लूटा गया, ब्राह्मणों तथा अन्य सभी जाति के बच्चों तथा महिलाओं को बंदी बनाकर उन्हें नंगे बदन कोड़ों से पीटा गया, उन्हे चलित जेल में पशुवत ले जाया गया और अंत में उन्हें दलित तुर्क के रूप में धर्मान्तरित किया गया।
उन्होने ‘द स्टोरी ऑफ सिविलिसेजन’ के प्रथम खण्ड से विल ड्यूरेंट की पंक्तियाँ दोहराई हैं –
भारत पर मुसलमानों की विजय, इतिहास की संभवत सबसे अधिक रक्तरंजित कहानी है। क्योंकि इस कहानी से हमें यह हृदय-विदारक नैतिक शिक्षा प्राप्त होती है कि उस सभ्यता का भविष्य कभी भी संकट ग्रस्त हो सकता है जिसकी स्वतंत्रता और व्यवस्था की जटिल किंतु नाजुक संरचना, संस्कृति, शांति को हिंसक आक्रमणों के द्वारा जो कहीं से भी अथवा आन्तरिक गुणात्मक वृद्धि के कारण से नष्ट की जा सकती है।
अंत में मुंशी लिखते है –
न तो आक्रांताओं की निर्ममता न उनका अनवरत उत्पीड़न भारतीय लोगों को दृढ़ सैन्य संगठन विकसित करने में और न वह कठोरता पैदा कर पाने हेतु जागृत कर सका जो उसके विरोधी शत्रुओं का सामना करने के लिए आवश्यक था[3]।
हमारे साम्राज्यों के सैन्य बलों की स्थापना आक्रमणकारियों की क्रूरता और हिंसा का सामना करने के लिए बनी ही नहीं थी। साहित्य में उस अंधे समय के लोगों के उत्पीड़न के वर्णन मिलते है जब अपने बच्चों को मां बाप धर्मान्तरण तथा गुलाम बनाये जाने के डर से जलविहीन कुएं में डाल देते थे तथा स्वयं भी डरे रहते थे।
चौदहवीं शताब्दी तक भी इस्लामी साम्राज्य दिल्ली और उसके आसपास के 150 किलोमीटर अर्धव्यास वाले क्षेत्र तक ही सीमित था। मात्र कुछ ही इतिहासकारों के (भारतीय विद्या भवन के ग्रंथ ‘द हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपल’ के लेखक) अतिरिक्त किसी ने भी इस सत्य को प्रकट नहीं किया। प्रतिष्ठाप्राप्त इतिहासकारों ने इस्लाम के आतंकवाद और हिंसा को ‘साम्राज्य निर्माण’ की प्रतिष्ठा से महिमा मंडित करने का ही सदैव प्रयास किया हा। हिंदुओं के आपसी कलहों के बाद भी, सामाजिक समस्याओं से ग्रस्त रहने पर भी तथा बृहद भारतीय साम्राज्य के अभाव के बाद भी मुस्लिम बर्बरता को जिस दृढ़ प्रतिरोध का सामना करना पड़ा वह स्वयं में महा आख्यान है। सातवीं शताब्दी में उदय के बाद जिस प्रकार इस्लामिक सैन्य बल अपना अंधविश्वास युक्त विजय यात्रा पर विश्व में इस्लामीकरण करता रहा उसे कहीं भी भारत जैसे विरोध का सामना नहीं करना पड़ा था।
इन तथ्यों के बाद भी भारतीय राजा अपनी सहिष्णुता और उदारता में ऐसे डूबे रहे कि उन्होंने कभी यह जानने का प्रयास ही नहीं किया कि मुसलमान लोग गैर-मुस्लिमों के प्रति किस प्रकार का हिंसात्मक दृष्टिकोण रखते है और उनके लिए महासंकट उपस्थित कर सकते है। उत्तर भारत में मुसलमानों ने जिस प्रकार का अत्याचार किया था उसको अनदेखा करते हुए भारत के अन्य क्षेत्रों के राजाओं ने उन्हे अपने भूभागों पर बसने की स्वीकृति प्रदान कर दी, इतना ही नहीं उन्हे अपने इस्लाम धर्म की प्रथाओं को भी मानते रहने की पूरी स्वतंत्रता प्रदान कर दी।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]मायाविनं च राजानं माययैव निकृन्ततु (महाभारत शल्य पर्व 57.7)
मायावी मायया वध्यः सत्यमेतद्युधिष्ठिर (महाभारत शल्य पर्व 30.06)
[2]तदिदं द्यूतमारब्धं पुनरेव यथा पुरा (महाभारत शल्य पर्व 32.7)
[3]‘द स्ट्रगल ऑफ एम्पायर’ बोंबे, भारतीय विद्या भवन, 1957 पृष्ठ xv