अहिल्याबाई का जन्म औरंगाबाद के निकट एक गॉव चॉडी में मानकोजी पटेल के घर हुआ था। यद्यपि आज के सन्दर्भ में उनका संबंध पिछड़े वर्ग से था तथापि उनमें अति उच्च संस्कार थे। आधुनिक भारत के पूर्ववर्त्ती समय में प्रत्येक वर्ण के लिए सदाचरण, उच्च संस्कार, उदारता, ज्ञान प्राप्ति की भावना, अध्यात्म आदि के महान आदर्श को प्राप्त करने के लिए अवसरों की कोई कमी नही थी। इसी कारण से बिना लिंग भेद या उम्र भेद के समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति में चाहे उसकी आर्थिक स्थिति कैसी भी रही हो, प्राचीन भारतीय संस्कृति की चेतना सदैव जागृत रही थी। निस्संदेह रूप से इन उच्च आदर्शों ने लोगों को उनके पूरे जीवनकाल तक मार्गदर्शन प्रदान करते हुए समाज में समरसता और शांति स्थापना का महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। यदि ऐसा न होता तो हजार वर्षों से भी अधिक समय तक विदेशी आक्रमणों के प्रहारों को सहते हुए भी सनातन धर्म का वृक्ष इस तरह आज तक न तो जीवित रह पाता और न फलता फूलता जबकि पश्चातवर्त्ती काल में भी हमारे ही देश के पाश्चात्य संस्कृति पूजक तथा नकली धर्म निरपेक्षतावादियों के सतत दुष्प्रचार के बाद भी वह सुदृढ़ है। यह वृक्ष इसलिए नहीं मुरझाया क्योंकि इसकी जडे बडी गहरी और मजबूत है।
सौभाग्य से अहिल्याबाई का विवाह मालवा के सूबेदार तथा शक्तिशाली मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर के पुत्र खाण्डेराव के साथ हुआ था। मल्हार राव होल्कर अपने पुत्र की विलासिता पूर्ण आदतों से परिचित था तथा समझ गया था कि उसका पुत्र उसका योग्य उत्तराधिकारी नहीं है। अतः उसने अपनी साहसी, बुद्धिमान तथा समझदार पुत्रवधु को प्रशासकीय तथा राजकीय कार्यों में प्रशिक्षित करना आवश्यक समझा। दुर्भाग्य से बहुत ही थोडे से समयान्तराल में अहिल्याबाई ने अपने पति खाण्डेराव, पुत्र मालेराव, पुत्री मुक्ताबाई, दामाद यशवंतराव नाति नाथू, तथा अपने पथ प्रदर्शक मल्हारराव को खो दिया। एक विधवा के रूप में वह अकेली हो गई। यद्यपि उसकी पुत्री तथा पुत्रवधू सति हो गई थी किंतु उसने अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ जीवित रह कर एक विधवा के रूप में लोगों तथा राजनेताओं द्वारा दी गई मानसिक प्रताडनाओं को सहन करते हुए भी सफलता पूर्वक तीस वर्षों तक ऐसा शासन चलाया कि लोग अचंभित हो गये। उसके शासन काल में मालवा क्षेत्र का बहुमुखी विकास हुआ, सांस्कृतिक क्षेत्र में व्यापक उन्नति हुई और राज्य में सुख शांति की स्थापना हुई। अपने प्रारम्भिक दौर में अहिल्या बाई ने बडे साहस के साथ अपने विरोधी राघोबा और चन्द्रचूड़ का सामना करते हुए अपना मार्ग प्रशस्त किया। युद्ध क्षेत्र में वह स्वयं नेतृत्त्व करने में सक्षम थी। उसने स्वयं की एक महिला सैन्य इकाई का निर्माण किया था। चन्द्रावत राजपूतों ने उसे कमजोर समझ कर जब हमला किया तो अहिल्या बाई ने उन्हें आसानी से पराजित कर दिया। अहिल्याबाई होल्कर राज्य की राजधानी को इंदौर से महेश्वर ले गई और वहां उसने भव्य मंदिरों, दिव्य तीर्थ स्नान घाटों के साथ अनेक उद्योगों की स्थापना व निर्माण करवाया जिससे मालवा को आर्थिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में गौरवमयी स्थान प्राप्त हो सका।
अहिल्याबाई एक आदर्श प्रशासक थी। उसके राज्य में गरीबों और बेसहारा लोगों के लिए आश्रय तथा खाने पीने की व्यवस्था थी, विद्वानों तथा सामान्य जनों अर्थात् सबके लिए दान-धर्म समान रूप से किया जाता था। अच्छे कार्यों को प्रोत्साहन दिया जाता था। उसमें एक राजर्षि के सभी गुणों का मूर्तिमान स्वरूप प्रकट था। उसकी बहुमुखी प्रतिभा के मूल में उसकी गहरी आध्यात्मिक आस्था थी। उसने अपने राज्य के नागरीकों को चोरो, ठगों, डाकुओ, भृष्ट अधिकारियों अकाल तथा अभाव के डर से मुक्त कर दिया था। उसने लोगों को करों के भार से मुक्त कर दिया था। उसके राज्य में कोई अनावश्यक कर नही वलूला जाता था। उसका व्यक्तिगत जीवन, रहनसहन और आचरण अत्यंत सादगी पूर्ण था। उसका चरित्र एक आदर्श था तथा राज्य के लोगों को लिए नैतिकता पूर्ण व्यवहार करने के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत बन गया था। महिलाओं पर लगे कठोर बंधनों के नियमों को उसने शिथिल कर दिया था (विशेषकर विधवाओं के सामाजिक बहिष्कार से जुड़े), दत्तक तथा अन्य सुविधा देने के नियमों के साथ साथ वह गरीबों तथा पीड़ितों के लिए तो उनके जीवन का प्रकाश पुंज ही बन गई थी। यद्यपि वह अपने प्रशासकीय अधिकारियों के प्रति सहिष्णु थी किंतु प्रशासन पर उसकी गहरी पकड थी। अहिल्याबाई अपने गुप्तचर संगठन के माध्यम से सब स्तर पर पूरी जानकारी रखती थी और सुनिश्चित करती थी कि कोई भी अधिकारी रिश्वत आदि न ले। अपने योग्य और ईमानदार अधिकारियों का वह व्यक्तिगत स्तर पर ध्यान रखती थी, वह उनके परिवार तथा उनके सुखदुख का पूरापूरा ब्योरा जानती थी और एक माता की तरह उनकी रक्षा करती थी।
अहिल्याबाई ने साम, दाम, भेद और दंड की नीति अपनाते हुए जंगल के लुटेरों, राजमार्ग के डाकुओं और ठगों को न केवल निष्प्रभावी किया अपितु उनमें सांस्कृतिक गुणों का समावेश कर उन्हे अपने राज्य के सुरक्षा प्रहरियों के रूप में परिवर्तित भी कर दिया। एक बार तो उसने यह घोषणा भी की थी कि वह अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह उसी व्यक्ति से करेगी जो इन अपराधियों से राज्य को मुक्त कर देगा। इस चुनौती को एक सामान्य योद्धा यशवंत राव ने पूरा कर दिया था और तब अहिल्याबाई ने सहर्ष अपनी पुत्री का विवाह इस सामान्य सैनिक के साथ कर उसे अपना दामाद स्वीकार कर लिया। यह सिद्ध करता है कि वह अपनी प्रजा के कल्याण के लिए कितनी समर्पित थी। विंध्याचल क्षेत्र के सभी भीलो, शिकारियों, जंगल के लुटेरों, और अन्य ठग तथा अपराधियों ने अहिल्याबाई के सम्मुख अपने आप को समर्पित कर दिया था।
न्याय प्रदान करने में अहिल्याबाई की कोई तुलना नहीं है। सत्य के प्रति अडिग निडर आस्था, तत्काल निर्णय क्षमता, उचित दण्ड देने की क्षमता, के साथ आंतरिक रूप से वह अत्यंत दयालु स्वभाव की थी। मामूली घरेलू विवादो से लगाकर अति गंभीर प्रकरणों में वह ऐसा समुचित न्यायपूर्ण निर्णय देती थी जो सर्वमान्य होता था। उसकी बुद्धिमत्ता और चातुर्य में उसकी करुणा की भी झलक मिलती थी।
उसने कृषि को अत्यधिक प्रोत्साहित किया साथ ही पशुपालन और विपणन को भी। उसे आपराधिक नियमों और दण्ड संहिता का अच्छा ज्ञान था। यद्यपि वह अपनी सेना के कार्यों में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप नहीं करती थी तथापि वह सुनिश्चित करती थी कि उसकी सेना सदैव आकस्मिक आक्रमणों का सामना करने हेतु सदैव तैयार रहे। आक्रमण के समय वह स्वयं घोडे पर सवारी कर हाथो में तलवार लेकर स्वयं रणभूमि पर सेना का नेतृत्व संभालती थी। उसने कभी अन्य राज्य पर आक्रमण नहीं किया। फिर भी अपने राज्य की पूरी पूरी सुरक्षा करते हुए अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखा। यही हमारे सनातन धर्म की तथा भारतीय सम्राटों की आदर्श परंपरा भी रही है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.














































