सारांश रूप में अहिल्याबाई के रूप में हम हजार वर्षों के मुस्लिम अत्याचारों के विपरीत एक अत्यंत उदात्त हिंदू चरित्र को देखते है। अहिल्याबाई और सवाई जयसिंह दोनो ने मुगलों से कोई सीधा युद्ध नहीं किया फिर भी उन्होंने अपने विशिष्ट ढंग से सनातन धर्म की सुरक्षा और विकास के लिए सतत रूप से अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। यह अपने आप में भारतीय क्षात्र परम्परा का अद्भुत उदाहरण है।
सवाई जयसिंह ने हिन्दुओं को जजिया, तीर्थ कर, स्नान कर आदि इस्लाम के अत्याचार भरे करों से मुक्त करवाया था ताकि पुनः भारतवर्ष का संपूर्ण हिंदू समाज अपने धर्म के प्रति जागृत होकर तीर्थ यात्राऍ व तीर्थ स्नान आदि करने को प्रेरित हो सके और अहिल्याबाई ने इन तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए व्यापक व्यवस्थाओं का निर्माण किया था। कुल मिलाकर इन दोनो के प्रयत्नों ने संपूर्ण हिंदू समाज के संगठन को एक करने में तथा उसे दृढ़ता प्रदान करने का दूरगामी कार्य संपन्न किया था।
हमारे त्योहारो, यज्ञों, देवालयो, पूजा, पौराणिक विमर्शों, कला, साहित्य, धर्मशास्त्रों और दर्शनशास्त्र ने एक नवीन उमंग से युक्त पुनरुज्जीवन की तरंग की प्रतीती का अनुभव किया है। क्या इससे अधिक प्रभावशाली अन्य कोई और तरीका भी हो सकता था जो हमारे हिंदू समाज को इस व्यापक स्तर पर बांधने में सफल हो पाता?
जब इस्लाम ने हमारी भूमि छीन ली, हमारे मंदिरों को नष्ट कर दिया, हम लोगों को क्षत विक्षत कर दिया तथा हमारी संस्कृति को मिटाने का पूरा प्रयास किया हमारी जीवन शैली को भ्रष्ट कर दिया तब उपयुर्त्क गतिविधियों और तौर तरीकों से ही हम लोगों में पुनः साहस, प्रेम, मैत्री, ज्ञान के प्रकाश का उद्भव व आशा की ज्योत प्रज्वलित हो सकती थी। इसी कारण से इन दो महान व्यक्तित्वों के जीवन तथा उनकी उपलब्धियों को थोड़ा विस्तार से दिया गया है – जिसका उद्भव भयावह इस्लामिक शासन के पतनोन्मुखी काल में हुआ था। इसके अतिरिक्त इन दोनो अर्थात् सवाई जयसिंह और अहिल्याबाई का क्षात्र भाव और औदार्य अपने आप में अनन्य तथा अभूतपूर्व होकर सदा भारतीय हिंदू इतिहास में स्मरणीय रहेगा।
इस प्रकार के राष्ट्रीय योगदान ही हमारे प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष की पृष्ठभूमि की शक्ति युक्त प्रेरणा बने तथा युरोपियन ईसाई मिशनरियों द्वारा नवीन प्रकार के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष करपाने में सहायक सिद्ध हुए।
उपसंहार सन् 1857 से क्षात्र परम्परा
भारत की गौरवमयी क्षात्र परंपरा की धरोहर के अंतिम अवशेष के रूप में सन् 1857 के ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ को देखा जा सकता है। इसके उपरांत उसी क्षात्र चेतना को सन् 1944 में सुभाष चन्द्र बोस की ‘आजाद हिंद फौज’ में देख सकते है।
सन् 1857 से 1944 तक के नब्बे वर्ष के समय में भारतीय क्षात्र भावना मुख्यतः वैयक्तिक प्रतिभाओं के माध्यम से अभिव्यक्त होती रही थी। रानी चेन्नम्मा, संगोळ्ळी रायण्ण , रानी अब्बक्का, वेलुथम्पी, कुंवर सिंह तथा वीर पांड्या कट्टाबोम्मन जैसे असाधारण योद्धाओं और सैनिकों ने अपने अपने स्तर पर क्षात्र चेतना को अपने अपने तरीकों से प्रज्वलित रखते हुए स्वतंत्रता का संघर्ष किया था। सन् 1857 के संघर्ष में प्रमुख रूप से नानासाहेब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई ने संगठित सेना का नेतृत्व करते हुए लोगों में विशेष उत्साह पैदा किया था। इसके अतिरिक्त भी अनेक देशभक्त योद्धा जैसे नरगुंडकर बाबासाहेब, मुंडारागी के भीमराव आदि ने अपने इन्हीं सेना नायकों से प्रेरणा पाकर संघर्ष करते हुए शहीद हो गये।
विनायक दामोदर सावरकर, बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपतराय जैसे प्रखर क्रांतिकारी हो गये जिन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष की ज्योति को विशेष रूप से प्रज्वलित किया तथा उनसे प्रेरणा पाकर अनेक देशभक्तों ने – उदाहरणार्थ – चाफेकर बंधुओं, अरविंद घोष, बाघा जतिन, खुदीराम बोस, उधम सिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, वासुदेव बलवंत फडके, अल्लुरी सीतारामराज, मदनलाल ढींगरा, भगत सिंह, शिवराम राजगुरु, सुखदेव थापर आदि लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी के विरुद्ध संघर्ष कर अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। चितपावन ब्राह्मण समुदाय ने ऐसे अनेक क्रांतिकारियों को जन्म दिया जो बड़े साहसी स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा थे। इतना ही नही संपूर्ण भारत वर्ष के हजारों गॉवों से अनगिनत स्वतंत्रता संग्राम सैनानी हो गये है जिन्होने देशहित में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। यह सभी वीर देशभक्त वंदे मातरम का उद्घोष करते हुए एक हाथ में गीता तथा चेहरे पर मुस्कान लिए स्वेच्छा से स्वतंत्रता प्राप्ति के संग्राम में ब्रिटिश शासन की फॉसी पर झूल गये। इन क्रांतिकारियों ने कभी भी न बच्चों को न बूढ़ों को न निर्दोष को और न किसी असहाय को कभी सताया था। उन्होने कभी भी किसी धर्म का विरोध भी नही किया, वे केवल ब्रिटिश साम्राज्य की उपनिवेशवादी शासन व्यवस्था के विरुद्ध लड रहे थे। इनमें से कुछ प्रसिद्ध लोग जैसे श्याम जी कृष्ण वर्मा, मेडम भीखाजी कामा, रासबिहारी बोस, दिनेश मजूमदार, बादल गुप्ता, जतिन मुखर्जी विष्णु गणेश पिंगले, निरेनदास गुप्ता और विनय बोस आदि सैन्य गतिविधियों में व्यस्त रहे। यशपाल जैसे अवसरवादी, भीरु वामपंथी देश द्रोहियों के कारण चन्द्रशेखर आजाद जैसे महान राष्ट्रभक्तों को अत्यधिक पीडित होना पड़ा और अपने प्राण गवाने पडे थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत ऐसे ही लोगों को जवाहरलाल नेहरु और इन्दिरा गांधी ने पुरस्कृत कर उन्हे प्रतिष्ठा प्रदान की और वे अत्याधिक धनवान हो गये । भारतीय साम्यवादियों ने ब्रिटिश शासन के साथ मिल कर स्वतंत्रता संग्राम को विफल करने का प्रयास किया था। आज भी यह लोग स्वतंत्रता विरोधी तथा भारतीयता के शत्रु बने हुए है।
श्री भारती कृष्ण तीर्थ जो महान विद्वान, चिंतुक, लेखक और दूरदृष्टा थे तथा महर्षि अरविंद के साथी थे, उनके साथ एक क्रांतिकारी के रूप में संघर्ष किये थे अपने बाद के दिनों में वे पुरी तथा द्वारका पीठ के शंकराचार्य बनाये गये थे।
लंदन में भी अनेक भारतीय युवकों ने ‘इंडिया हाउस’ की स्थापना कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को बढ़ाने में अपना योगदान दिया। उनमें से प्रमुख रूप से विनायक दामोदर सावरकर थे जिन्होने इस उद्देश्य की उर्वर भूमि तैयार करने वाली एक श्रेष्ठ पुस्तक “द इंडियन वार ऑफ इंडिपेन्डेंस 1857” लिखी थी।
भारत में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का नाम सर्वोपरि है। स्वामी दयानंद सरस्वती तथा स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा पाकर सैकड़ों सामान्य भारतीय युवक क्रांतिकारी बन गये। यहाँ तक कि विदेशी महिलाऍ जैसे ऐनी बेसेंट और सिस्टर निवेदिता ने भी भारतवर्ष की सेवा की।
भारत का स्वतंत्रता का जन आंदोलन एक सामुहिक आंदोलन से वैयक्तिक स्तर तक के स्वतंत्रता आंदोलन में परिवर्तित हो चुका था। किंतु तिलक के असहयोग आंदोलन की इस आश्चर्यजनक सफलता से प्रेरित गांधी ने अपने नेतृत्व में इस आंदोलन के क्षात्र भाव को नष्ट कर दिया। भारत की भोली जनता अपने मूल शौर्य भाव को भुल गई। क्षात्रभाव की वास्तविक अभिव्यक्ति हमें सुभाष चन्द्र बोस की ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ में ही देखने को मिलती है। यह हमारा सौभाग्य है कि हमारे देश की सेना में हमें आज भी इस क्षात्र चेतना की भव्यता देखने को मिल रही है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.














































