अहिल्याबाई ने अपने कोषालय का हमेशा परिपूर्ण रखा उसके शासन काल में मालवा क्षेत्र अति समृद्ध प्रांत था। अपने प्रजाजनों के कल्याण के अतिरिक्त उसने कभी भी एक रुपये का फिजूल खर्च नहीं किया। उसने अपने पर भी कोई खर्च न करते हुए पवित्र बिल्व पत्र की साक्ष्य में प्रतिज्ञा पूर्वक अपने वैयक्तिक कोषागार के सोलह करोड़ की एक बड़ी धनराशि अपने देश हित में जनकल्याणार्थ दान कर दी थी। उसने पूरे भारत भर में धमार्थ, परोपकारी कार्य किए थे। उसके यह प्रमुख कार्य आज भी अस्तित्व में है और उसके प्रति सम्मान तथा आश्चर्य का भाव जागृत करते है।
मराठा साम्राज्य का प्रमुख पेशवा भी अहिल्या बाई होल्कर को सम्मान की दृष्टि से देखता था। पूना के दरबार में उसका बड़ा आदर था तथा पूरे मराठवाड़ा में उसकी पूजा की जाती थी। पूरे भारत में उसकी प्रसिद्धि थी। भारत वर्ष सभी प्रमुख शहरों और तीर्थ स्थानों में उसके अधिकारी पदस्थ थे जो वहां रह कर अहिल्याबाई द्वारा परमार्थिक भवनों के निर्माण कार्य की देखरेख भी करते थे। सनातन धर्म के प्रति अहिल्याबाई की श्रद्धा और समर्पण अद्वितीय थी। उसका जीवन एक तपस्विनी सन्यासिनी का जीवन था। एक बड़े राज्य की अधिपति होने के बाद भी उसका जीवन अत्यंत सरल और सादगीपूर्ण था। वह एक सादी सफेद सूती साड़ी पहनती थी तथा मस्तक पर भस्म लगाती थी। यही उसके आभूषण थे। वह एक रूढ़िवादी महिला नहीं थी और न वह कोई परदा आदि करती थी। प्रतिदिन प्रातः अपने स्नान ध्यान, पूजा एवं जप आदि से निवृत होकर वह पूरे समय बिना थके प्रशासकीय कर्तव्यों का एक सच्चे कर्मयोगी की तरह निर्वहन करती थी। संस्कृत, मराठी तथा हिन्दी भाषा पर उसका अच्छा अधिकारा था, वह इन भाषाओं में सरलता से लिखना, बोलना व पठन कार्य कर सकती थी।
आज भी महेश्वर में उसका बिना तडक भडक वाला महल हम देख सकते है जो मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। वहां आज भी उनके चित्र की पूजा अर्चना की जाती है। चूंकि अहिल्याबाई ने अपने साम्राज्य को, कोषागार को तथा स्वयं के संपूर्ण जीवन को भी परमार्थ का साधन बना लिया था अतः उसके प्रत्येक शासकीय अभिलेखों में वह ‘श्रीशंकर’ शब्द अवश्य लिखती थी। इससे हमें विजयनगर साम्राज्य का स्मरण हो आता है जहां इसी प्रकार उनके प्रत्येक शासकीय आदेशों पर ‘विरुपाक्ष’ शब्द अंकित किया जाता था।
यद्यपि वह एक शिवभक्त थी किंतु वह एक सच्ची अद्वैतवादी थी। उसने कभी हरि और हर में भेद नहीं किया तथा सभी पंथों का समान रूप से सम्मान किया। दूर दूर से यहां तक कि हैदराबाद से भी मुस्लिमों के झुण्ड आ आ कर उसके राज्य में सुख शांति का जीवन जीने लगे। उसके नियम सबके लिए एक समान थे।
अहिल्याबाई ने कवियों, पंडितों तथा लोक कलाओं को प्रश्रय दिया था। सभी शास्त्रों के अध्ययन अध्यापन को प्रोत्साहित करने हेतु अहिल्याबाई ने काशी में एक ब्रह्मपुरी नामक अग्रहार की स्थापना की थी जहां सैकड़ों विद्वानों के ठहरने, खाने पीने, कपड़े तथा आमदनी की निरंतर व्यवस्था थी। संपूर्ण भारत वर्ष में जिस स्तर पर तीर्थ क्षेत्रों के पुनर्निर्माण के कार्य में अहिल्याबाई ने अपने निस्वार्थ भाव से प्रयास किए थे उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती है। उसके इस कार्य का एक विशिष्ट पवित्र पक्ष तब और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब हम देखते है कि इन तीर्थ क्षेत्रों को बारम्बार मुस्लिम आक्रमणों द्वारा नष्ट किया जाता रहा था।
औरंगजेब द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर के नष्ट अवशेष सत्तर वर्षों से जमीन में दफना दिये गये थे। एक मां की तरह अहिल्याबाई ने हमे इस राष्ट्रीय अपमान जनक स्थिति से बाहर निकाला। उसके द्वारा निर्मित मंदिर आज भी विश्वनाथ का घर है[1]। जिस महान कार्य को भारत के अनेक राजा और महाराजा न कर पाये उस असाधारण कार्य को इस महान माता ने कर के दिखा दिया। प्रत्येक राष्ट्रभक्त को तथा हिन्दू को अहिल्या बाई के प्रति सम्मान और गर्व होगा।
सवाई जयसिंह की भांति ही अहिल्याबाई ने भी सैकड़ो मंदिरों, विश्रामग्रहों, धर्मशालाओं, अन्नक्षेत्रों तथा तीर्थ घाटों का निर्माण करवाया था। यह सब निर्माण अपने सौन्दर्य और भव्यता में असाधारण है। उसने पूरे भारत वर्ष में अपने यह यशस्वी कार्य किये थे। आज भी हम उसके महान कार्यों की झलक बद्री, केदार, हरिद्वार, काशी, गया, पुरी, द्वारका, उज्जैन, मथुरा, वृंदावन, अमरकूट, पुष्कर, पंढरपुर, रामेश्वर, कालहस्ती, गोकर्ण और अनन्तशयन आदि स्थानों में देख सकते है। चार धामों में (बद्रीनाथ, द्वारका, पुरी और रामेश्वर) में उसने अनगिनत धर्मार्थ कार्य किये। बारह ज्योतिर्लिंगों पर भी इसी प्रकार उसने कार्य किये। इन सभी स्थानों पर साधु-संतों की सेवा में ठहरने, खाने, बरतन तथा कम्बलों आदि की पूरी व्यवस्था की गई थी। तीर्थ यात्रियों को आर्थिक मदद भी दी जाती थी। गौ सेवा तथा ब्राह्मणों की सेवा में भी उन्होंने कोई कमी नहीं रखी थी। प्रत्येक तीज त्योहार पर दानधर्म, भण्डारे आदि किये जाते थे।
अहिल्याबाई ने कुए, तालाब, बावड़िया, मंडप, बाग बगीचे तथा बांधों का निर्माण भी करवाया था। इतना ही नहीं महाशिवरात्री जैसे पावन पर्वों पर अभिषेक के लिए प्रत्येक तीर्थ स्थानों पर सीधे गंगोत्री से गंगाजल मंगवाने की व्यवस्था का शुभारंभ भी अहिल्याबाई द्वारा किया गया। नर्मदा परिक्रमा के लिए भी उसने उसी स्तर की व्यवस्थाए की थी। मंदिरों के अतिरिक्त अहिल्याबाई ने जैन मंदिर तथा मस्जिदें भी बनवाई थी। पशुओं के लिए चारा, पक्षी के लिए दाना के साथ भूसे, घास और पानी आदि की व्यापक व्यवस्था उपलब्ध थी। बडे बडे चारागाहों के साथ साथ चीटियों को मीठे दाने की भी व्यवस्था की गई थी। अपने इन सभी परोपकारी कार्यों की व्यवस्था सुचारू रूप से सदा चलती रहे इसके निमित्त अहिल्याबाई ने स्थानीय लोगों का विशिष्ट जिम्मेदारियॉ सौंपी थी ताकि उनकी वंश परम्परा इस कार्य को निरंतर करती रहे। उसने यह सुनिश्चित भी किया कि उसके यह सभी कार्य स्वयंपोषी हो।
उसकी उदारता की महिमा ऐसी थी कि चोर और डाकू भी उसका धन संपदा को नहीं लूटते थे और न उससे प्रेरित तीर्थ यात्रियों को लूटते थे अहिल्याबाई से प्रेरणा पाकर अनेक महारानियों तथा धनाढ्य महिलाओं ने भी धर्मार्थ परोपकारी कार्य में अपना योगदान प्रारम्भ किया था।
इतने व्यापक स्तर पर इतना अत्यधिक धर्मार्थ कार्य करते हुए भी अहिल्याबाई ने स्वयं को मात्र ईश्वर का एक साधन माना।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1] सन् 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का शिलान्यास किया था तथा सन् 2021 में इसका उद्घाटन किया गया। इस अद्भुत कार्य से काशी विश्वनाथ मंदिर सीधे सीधे गंगा नदी से जुड़ गया। इस परियोजना के कारण चालीस से अधिक मंदिरों के खंडहर प्राप्त हुए उन्हें पुनः निर्मित किया गया।














































