चालुक्य विक्रमादित्य का उत्कृष्ट शासन
कर्नाटक के प्रमुखतम सम्राटों में कल्याण चालुक्य राज सम्राट विक्रमादित्य षष्टम का नाम स्मरणीय है। वह सोमेश्वर प्रथम का पुत्र था। यह उसका सौभाग्य था कि विद्यापति बिल्हण जैसा कवि उसके दरबार में था जिसने उसकी उपलब्धियों को सदा के लिए अमर बना दिया।
अठारह सर्गों की लम्बी काव्य रचना ‘विक्रमांकदेवचरित’ में कवि बिल्हण ने विक्रमादित्य षष्टम के जीवन और उसकी उपलब्धियों का वर्णन किया है। विक्रमादित्य षष्टम ने पचास वर्षों से भी अधिक समय तक शासन करते हुए साम्राज्य में शांतिपूर्ण व्यवस्था सुनिश्चित की थी।
विक्रमादित्य षष्टम का पुत्र सोमेश्वर तृतीय था जिसने एक अनोखी कृति ‘राजमानसोल्लास’ की रचना की थी। यह कर्नाटक का पहला विश्वकोश है। सोमेश्वर ने दावा किया है कि एक राजा को ज्ञान की सौ शाखाओं का ज्ञाता होना चाहिए [1]।
संस्कृत में तीन बडे विश्वकोश हैं –
1) बृहत्संहिता – वराहमिहिर द्वारा लिखित गुप्त कालीन ग्रंथ है
2) राजमानसोल्लास – (अभिलाषितार्थचिंतामणि) सोमेश्वर तृतीय द्वारा लिखित
3) शिवतत्त्वरत्नाकर – केळदी राजा बसवभूपाल द्वारा रचित
जब विक्रमादित्य षष्टम लम्बे समय तक साम्राज्य पर शासन करने में व्यस्त था तब उसके पुत्र सोमेश्वर तृतीय ने पूर्ण सक्षम होने के बाद भी कभी भी अन्य द्रोही राज कुमारों की तरह राज्य सत्ता प्राप्ति का मोह न रखते हुए स्वयं को ज्ञान प्राप्ति के मार्ग पर व्यस्त रखते हुए इस विश्वकोश की रचना की थी। यह एक उदाहरण हमारी परंपरा में भारतीय इतिहास में क्षात्र भाव की मान्यताओं को बनाये रखने का श्रेष्ठ प्रकरण है।
विक्रमादित्य का पिता सोमेश्वर प्रथम निरंतर पालों तथा चोल राजाओं से युद्ध करता रहा। ऐसे ही एक युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। किंतु उसने धारानगर के राजा भोज तक को हराया था। विक्रमादित्य को उसके भाइयों का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ फिर भी उसने कल्याण चालुक्य साम्राज्य को नर्मदा तट तक विस्तारित कर दिया। उसने महान सम्राटों जैसे करहाट भोज, कुलोत्तुंग चोल और होयसल विष्णुवर्धन को भी परास्त किया था।
उसने गंग, कदम्ब तथा राष्ट्रकूटों के राजवंशों को भी पराजित किया जिन्होने लम्बे समय तक कर्नाटक पर शासन किया था। उसकी पत्नी चंदलदेवी एक विदुषी थी। धर्मशास्त्र के सुविख्यात विशेषज्ञ विज्ञानेश्वर जिन्होने याज्ञवल्क्यस्मृति पर एक टीका ‘मीताक्षर’ लिखी थी, विक्रमादित्य के आस्थान की शोभा थे। उसके भाई कीर्तिवर्मा ने कन्नड़ भाषा का ग्रंथ ‘गो-वैद्य’ लिखा था। विक्रमादित्य मात्र अपने शौर्य के कारण ही प्रसिद्ध नहीं था किंतु उसने अपनी प्रजा का भी पूरा पूरा ध्यान रखा था। उसने विविध ढंग से लोगों की सहायता करते हुए अपने साम्राज्य में शांति और समृद्धि की प्राप्ति की थी।
विक्रमादित्य के सेनापति ने इटगि स्थित महादेव देवालय की स्थापना की थी। अपने शिल्प सौन्दर्य के कारण इस मंदिर को ‘सभी मंदिरों का सम्राट’ कहा जाता है।
‘मिताक्षर’ के अन्तिम भाग में विज्ञानेश्वर ने कल्याण नगर तथा विक्रमादित्य षष्टम की प्रशंसा में निम्न शब्द लिखे हैं –
नासिदस्ति भविष्यति क्षितितले कल्याणतुल्यं पुरं
नो दृष्टः श्रुत एव वा क्षितिपतिः श्री विक्रमार्कोपमः
“कल्याण नगर जो मंगलमय सौभाग्य का एक आदर्श प्रस्तुत करता है, जिस के समान न तो भूतकाल में, न
वर्तमान काल में और न भविष्य में ऐसे शहर के हो पाने की संभावना है। विक्रमादित्य जैसे सम्राट जैसे किसी
अन्य राजा के बारे में अब तक न तो सुना गया और न देखा गया है”
विक्रमादित्य षष्टम के काल में ही गुजरात तक उसकी सेना का विजय नाद होता रहा। उसने अपने लम्बे जीवन काल में कोई भी युद्ध नहीं हारा यह बड़े गर्व के साथ लिखा गया है। उसका साम्राज्य तिरुचिरापल्ली (दक्षिण) से नर्मदा (उत्तर) तक फैला था। यह आज के यूरोप का अर्धभाग है। उसका साम्राज्य नेपोलियन या हिटलर के साम्राज्य से कई गुना बड़ा था फिर भी कर्नाटक तक में भी उस पर कोई बड़ा ग्रंथ नहीं लिखा गया और न राष्ट्रीय स्तर के इतिहास लेखन में उसे वह समुचित सम्मान जनक स्थान प्रदान किया गया जिसका वह हकदार था। क्या ऐसा देश कभी समृद्ध हो सकता है जो अपने ऐसे महान क्षत्रियो की उपेक्षा करता हो?
पुलकेशी द्वितीय के विपरीत विक्रमादित्य षष्टम ने दृढ़ता पूर्वक अपने सभी पारिवारिक विवादों तथा कलह को समाप्त किया था। उसकी योग्यता को दृष्टिगत रखते हुए उसके पिता ने उसे राज्यसत्ता का भार सौंपना चाहा किंतु उसने अपने ज्येष्ठ भ्राता सोमेश्वर द्वितीय के सम्मानार्थ यह प्रस्ताव ठुकरा दिया था किंतु कालांतर में जब उसने अपने भाई की भीरुतापूर्ण कार्यप्रणाली, सुरक्षा के प्रति उपेक्षाभाव, उद्दंडता और सतत रूप से की जा रही दुष्टता को देखा तो विक्रमादित्य ने उसे बलपूर्वक शासन से हटा दिया।
विक्रमादित्य ने अपने अनुज जयसिंह के प्रति अत्यधिक प्रेम तथा सम्मान भाव रखते हुए उसे शक्ति संपन्न स्थिति प्रदान की फिर भी उस दुष्ट कृतघ्न ने विक्रमादित्य के विरुद्ध विद्रोह किया। विक्रमादित्य ने अपने दुस्साहसी भाई को हरा कर कारागार में बंद कर दिया। बाद में अपने भाई को जीवन दान देते हुए उसके स्थान पर अपने भतीजे (जयसिंह के पुत्र) को नियुक्त कर विक्रमादित्य ने अपने औदार्य तथा दूर दृष्टि का परिचय दिया।
अनेक राजाओं ने विक्रमादित्य के व्यक्तित्व की प्रशंसा की है। वह अपने विवेक, साहस, उदारता तथा सहयोगात्मक चरित्र के लिए विख्यात था। विक्रमादित्य षष्टम के सहयोग से मालवदेश के राजा जगद्देव को अपना साम्राज्य वापस प्राप्त हो सका था जो उसने पारिवारिक कलह के कारण खो दिया था। जगद्देव जैसे राजाओं ने विक्रमादित्य को अपना साम्राज्य सौंप दिया था तथा वे उसकी राजधानी में ही रहते थे मानों उसी की संतान हो। जब हम विक्रमादित्य षष्टम जैसे व्यक्तित्व को देखते हैं तो चकित रह जाते है और उनमें सच्चे क्षात्र भाव के दर्शन कर पाते हैं।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]यह ग्रंथ प्रमाणित करता है कि भारतीय क्षात्र न तो रक्त पिपासु था, न कट्टरवादी मतांध था और न असभ्यता पूर्ण परंपरा थी। उसने ज्ञानार्जन की संपदा तथा विवेक को आदर्श मानकर सौन्दर्य परक आनन्द, परिष्कृत संवेदन और बुद्धि कौशल के साथ शक्ति तथा कूटनीति को अपनाया था। बारहवी शताब्दी का यह महान ग्रंथ जो सामान्यतः ‘मानसोल्लास’ नाम से जाना जाता है मध्य भारत क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर का एक अद्वितीय अभिलेख है।