मेवाड़ के महा क्षत्रिय
राजपूतों में संभवतः मेवाड़ का राजवंश श्रेष्ठतम है। मेवाड़ का केंद्र चित्रकूट (चित्तौड़) है। ऐसा प्रतीत होता है मानों एक बहुत बडे समतल भूभाग पर एक पहाड़ अचानक खड़ा हो गया है। इस पर्वत शिखर तथा उसके आसपास तक फैला अभेद्य किला चित्तौड़ का केंद्र स्थान है। यह मात्र सामरिक किला ही नहीं है किंतु यहां अत्यंत मनोहारी शिल्प कृतियों का भंडार भी है। यहीं पर भोज द्वारा निर्मित महादेव मंदिर तथा मीराबाई द्वारा निर्मित कृष्ण मंदिर भी है। चूंकि यहां का अधिकांश भूभाग बंजर रहा है अतः इसके निर्माताओं ने दूरदृष्टि युक्त विवेक से यहां अनेक जलाशयों का निर्माण करवाया था जिसके कारण यहां अनेक स्थानों पर वृक्षों, लताओं और हरियाली आदि झूंड़ रूप में पाई जाती है। दुर्ग के आसपास का क्षेत्र सात घेरों द्वारा संरक्षित किया गया है। इसे केन्द्र में रखकर राजपूतों ने अनेक दुर्गों का निर्माण करवाया था। विशेष रूप से अरावली के जंगलों में राजपूतों द्वारा निर्मित किले वास्तव में भव्य है। इसी पृष्ठभूमि में उनकी संस्कृति और शौर्य का पोषण होता रहा था।
सिसोदिया राजवंश की परम्परा बप्पा रावल से प्रारम्भ होती है जिसमें बाद में अपने शरणार्थियों का महान रक्षक हमीर पैदा हुआ था। वस्तुतः ऐसी शरणागति प्रदान करते रहने के कारण अनेक विपत्तियां पैदा हुई। अलाउद्दीन खिलजी का एक अधीनस्थ अधिकारी जब अपने बादशाह के क्रोध से बचने हमीर के पास आया तो उसे बचाने हेतु अलाउद्दीन खिलजी के बडे सैन्य बल के साथ असाधारण शौर्य का साथ युद्ध किया किंतु अन्ततः युद्ध में परास्त हो गया।
इसी राजवंश का एक दूसरा प्रख्यात नाम राणा कुंभा (कुंभकर्ण) का है। वह सभी शास्त्रों का ज्ञाता था। संगीत, नृत्य और वाद्य वादन में अपनी निपुणता के लिए भी वह प्रख्यात था। जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ पर उसने ‘रसिकप्रिया’ नामक टीका भी लिखी है। संगीत पर उसका विश्वकोश स्तर का ग्रंथ ‘संगीतराज’ भी प्रसिद्ध है।
प्रख्यात राणा संग्राम सिंह, राणा कुंभा का पोता था। उसके शरीर पर युद्ध में लगे चौरासी (84) घाव थे। इब्राहिम लोदी से युद्ध करते समय ढाल थामने वाली उसकी बायीं भुजा कट गई थी। फिर भी वह एक ही हाथ से युद्ध करता रहा। ऐसे युद्ध के घाव ‘वीर-लक्ष्म’ कहे गये है। उसके हाथ का उपचार करने वाले चिकित्सकों ने उसके घाव की संख्या गिन कर बतलाई थी। संग्राम सिंह के पिता का नाम राणा रायमल्ल तथा माता का नाम रत्नकुमारी था। संग्राम सिंह की पत्नी इतिहास प्रसिद्ध रानी रूपमती थी। उसके सौन्दर्य तथा दांपत्य प्रेम की कहानी राजपूतों को शौर्य गाथाओं में विशेष सम्मान के साथ पढ़ी जाती है। अनेक वर्षों तक वह खिलजियों तथा लोधियों के विरुद्ध दृढ़ता के साथ लड़ता रहा था। अपनी इस दृढ़ता के बाद भी पारस्परिक कलह एवं द्वेष के कारण वह अपने ही लोगों द्वारा विष दिये जाने के कारण मारा गया। उसने रणस्तंभपुरी (रणथम्भोर) में अंतिम सांस ली थी।
इस प्रकार अनेक अवसरों पर राजपूतों ने अत्यंत साधारण कारणों से अपने प्राण गंवाए और कभी कभी अपरिचितों की रक्षार्थ मारे गये। उन्होंने अपने शौर्य का अधिकांशतः अनुपयुक्त औदार्य भाव के प्रदशनार्थ उपयोग किया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार संग्राम सिंह लंगड़ा तथा एक आँख से अंधा था अपनी समस्या शारीरिक विकृतियों के बाद भी वह एक ऐसा असाधारण योद्धा था जिसे भुलाया नहीं जा सकता।
उसका पुत्र विक्रमादित्य ख्याति प्राप्त योद्धा नही था अतः संग्राम सिंह ने अपने दूसरे बेटे उदय सिंह को शासन सौंप दिया था। अपने पिता की तुलना में वह भी दुर्बल सिद्ध हुआ, इसके अतिरिक्त वह विलासिता का आदि था। बाबर का सामना न कर पाने के कारण उसने चित्तौड़गढ़ का किला छोड कर अरावली के जंगलों में स्थित उदयपुर के किले में भाग कर शरण ली। उसके जिंदा बचे रहने की कहानी भी स्वयं में एक महा बलिदान की कहानी है और उसके लिए हम सदा के लिए पन्ना दाई के आभारी रहेंगे जो उसे बाल्यावस्था में जीवित बचा कर ले गई थी क्योंकि इसी उदयसिंह ने बाद में महाराणा प्रताप सिंह जैसे महातेजस्वी पुत्र के पिता होने का गौरव प्राप्त किया।
जब उदयसिंह मात्र छः वर्ष का था तब उसके एक चचेरे भाई बनवीर ने षड्यंत्र कर शासन पर अधिकार करने का प्रयास किया। वस्तुतः वह उदयसिंह के बडे भाई विक्रमादित्य की अनदेखी कर स्वयं ही शासन चला रहा था। एक जासूस ने राजवास में पन्ना दाई को बनवीर के षडयंत्र की सूचना दे दी। पन्ना दाई ने स्वयं अपने पुत्र को उदयसिंह के राजसी वस्त्र पहना कर पलंग पर सुला दिया और उदयसिंह को रसोई घर के कचरे के डिब्बे में छिपा कर दुर्ग से बाहर भेज दिया। जब बनवीर वहां आया तो उसने पन्ना दाई की आंखों के सामने ही उसके पुत्र को उदयसिंह समझ कर टुकडे टुकडे कर दिया। इस प्रकार अपने राजकुमार की जान बचाने हेतु पन्ना दाई का यह पुत्र बलिदान अवर्णनीय है।
राजपूतों में ऐसी अनेक अविस्मरणीय महान महिलाएं होती रही है जिन्होंने निस्वार्थ भाव से अपना बलिदान दिया है। कृष्ण कुमारी ने स्वयं अपना मस्तक काट लिया था। राणा समरसिंह की पत्नी करमादेवी ने जौहर किया था। आग में स्वयं को होम कर देना इन वीर महिलाओं के लिए जैसे एक सामान्य खेल जैसा हो गया था। अपने सम्मान की रक्षार्थ अपने वीरता के भाव से प्रेरित होकर अपने जीवन का बलिदान दे कर यह नारियां इतिहास में अमर हो गई।
अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर वहां के राजा रतन सिंह को बंदी बना लिया था। रानी पद्मिनी राजा रतन सिंह की पत्नी थी। मित्रता करने के बहाने से अलाउद्दीन खिलजी, रतन सिंह का मेहमान बनकर चित्तौड़गढ़ आया और जाते वक्त छल करते हुए उसने रतन सिंह को बंदी बना लिया और फिर उसने बडी निर्लज्जता से अपना वासनायुक्त संदेश रानी पद्मिनी को भेजा कि यदि तुम अपने पति को मुक्त कराना चाहती हो तो तुम्हे मेरे समक्ष अपना समर्पण करना होगा। बिना परेशान हुए रानी पद्मिनी ने पांच सौ महिला-सहयोगियों को पांच सौ पालकियों में तथा तीन हजार सैनिकों के साथ जा कर रतन सिंह को मुक्त करवा लिया। इससे क्रोधित होकर अलाउद्दीन खिलजी ने बड़े सैन्य बल के साथ चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर दिया। रतन सिंह के हजारों सैनिक मारे गये क्योंकि वे शत्रु के साथ सीधे सीधे युद्ध करने में विश्वास करते थे। वे चाहते तो दुश्मन पर पीछे से भी आक्रमण कर सकते थे। इस प्रकार के अनेक ऐसे उदाहरण है जब हिन्दुओं को अपनी धार्मिक एवं नैतिक मान्यताओं के प्रति प्रतिब्द्धता के कारण स्वयं के प्राण गॅवाना पडे।
रानी पद्मिनी ने सभी महिलाओं और बच्चों के साथ चित्तौड़गढ़ में स्थित महादेव मंदिर तथा कृष्ण मंदिर के मध्य के विशाल मैदान में एक साथ इकठ्ठा होकर जौहर करते हुए आत्मदाह कर लिया। बहादुर सैनिकों ने इस जौहर की राख अपने मस्तक पर लगाई और अपनी अंतिम लड़ाई में अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया।
विश्व में ऐसा कोई देश नहीं जहां इस प्रकार महिलाओं, बच्चों तथा सैनिकों ने अपने सम्मानार्थ जीवन को राख कर देने जैसे उदाहरण के समान कोई कार्य कर पाने का सोचा भी हो! वह क्या महान आदर्श था जिसने उन्हे इस बलिदान के लिए प्रेरित किया ? इस महान सद्गुण का समुचित सदुपयोग नहीं कर पाने के पश्चाताप के बाद भी इस असाधारण मान्यता में कहीं भी कोई दोष नहीं था। अनेक अवसरों पर मुस्लिम अपने शौर्य से नहीं अपितु विश्वासघात करने वाली करतूतों के कारण युद्ध जीते थे। यदि यही नीति राजपूतों ने भी अपनाई होती तो वे सदैव अजेय रहते । इस संदर्भ में आज भी कृष्ण और कौटिल्य की नीति रेखांकित करने योग्य है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.