महाराणा प्रतापसिंह : एक अद्वितीय योद्धा
महाराणा प्रतापसिंह (महाराणा प्रताप) भारत के क्षात्र भाव के सबसे अधिक चमकीले हीरे है। वे उदयसिंह के तेईस (23) बच्चो में सबसे बडे थे। वह सिसोदिया वंश के योद्धा कुल में कुंभल गढ़ में जन्में थे। ‘एकलिंग स्वामी’ इनके परिवार के कुल देवता थे। अपने बचपन से ही उनमें महान योद्धा बनने के लक्षण दिखलाई देते थे। सन् 1572 में उदयसिंह की मृत्यु के उपरांत उसकी सबसे छोटी रानी का बेटा जगमल शासनासीन हुआ किंतु प्रजाजनों के भारी विरोध के कारण वह डर कर जंगल में भाग गया। बाद के काल में अपने अन्य भाइयों के साथ जगमल ने अकबर का साथ दिया जिनमें शक्तिसिंह प्रमुख था। जब वह मरा तो महाराणा प्रताप ने कहा कि एक दुष्ट तथा डरपोक व्यक्ति मर गया है, उसके लिए शोक मनाने की आवश्यकता नही है। अपने अंतिम समय तक भी महाराणा प्रताप की यही इच्छा रही कि किसी भी तरीके से चित्तौड़गढ़ को मुक्त करा लिया जावे क्योंकि वह मेवाड़ का हृदय स्थल है। लम्बी तथा दृढ़ निश्चय से लडाइयॉ लडते हुए उन्होंने सैंतीस (37) किले मुक्त करालिए किंतु वे चित्तौड़ को पूर्ण मुक्त न करा सके अतः उन्होंने प्रतिज्ञा की कि चित्तौड़ की मुक्ति तक न तो वे थाली में भोजन करेंगे और न पलंग पर सोएंगे। अपनी प्रतिज्ञा अनुसार वे पत्तल में भोजन करते एवं चटाई पर सोते थे। उन्होने अपने पुत्र अमर सिंह को कहा कि चित्तौड़गढ़ ही उनका परम लक्ष्य है। जिन तीन दुर्गों को वे मुक्त न करा सके उनमें चित्तौड़गढ़ भी एक है। आज भी महाराणा प्रताप के वंशज थाली पर पत्तल तथा शय्या के नीचे चटाई रखते है।
इतिहास, महाराणा प्रतापसिंह के प्रति बडा कठोर और निर्दयी रहा है। इतिहास ने मात्र हल्दीघाटी के युद्ध में उनकी हार का वर्णन बतलाते के अतिरिक्त उनके अद्वितीय शौर्य पर तनिक भी प्रकाश नहीं डाला है।
शीतल नाम के एक कवि ने प्रतापसिंह की प्रशंसा में एक कविता लिखकर और गा कर उन्हें सुनाई। प्रसन्न होकर राणा ने अपनी पगड़ी इस कवि को उपहार में पहना दी। बाद में यह कवि शीतल किसी भी अन्य राजा के दरबार में जाता तो पहले अपनी पगड़ी उतारता और फिर उस राजा के समक्ष झुक कर प्रणाम करता था। क्योंकि वह नहीं चाहता था कि राणा प्रताप की पगड़ी तक भी किसी के समक्ष झुके!! राणा प्रताप के प्रति लोगों के हृदय में इस सीमा तक सम्मान था !!
अपने अंतिम समय में शैय्यासीन अकबर को इस बात का दुख सताता रहा कि वह राणा प्रतापसिंह को अपने अधीन नहीं कर पाया। इसी समयावधि में उसके पुत्र सलीम ने विद्रोह कर दिया। इन आघातों के कारण अन्ततः अकबर की मृत्यु हो गई। जब हम देखते है कि अकबर जैसे अति शक्तिशाली बादशाह भी हिन्दू राजाओं पर बलपूर्वक अपना नियंत्रण न रख सके तो अन्य मुस्लिम शासकों के बारे में क्या कहा जा सकता है ?
हल्दीघाटी के युद्ध के समय अकबर दो लाख सैनिकों के साथ आया था। आने से पहले उसने मानसिंह राजा के साथ महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव भेजा था जिसे राणा प्रताप ने यह कह कर ठुकरा दिया “मै तुम्हारी तरह अकबर के सामने अपना सिर नहीं झुकाएंगे” । इसके बाद अकबर ने प्रतापसिंह के पुत्र को ‘सरदार’ बना कर अपने प्रतिनिधि के रूप में राज्य करने का प्रस्ताव भेजा किंतु महाराणा प्रताप ने अकबर द्वारा प्रदत्त हर प्रलोभन को ठुकरा दिया। अंततः उन्हें अपने बीस अथवा सत्ताईस हजार सैनिकों के साथ अकबर के भारी सैन्य बल के साथ युद्ध करना पड़ा। इसमें वे हार गये। हल्दीघाटी एक अत्यंत संकरी घाटी है जहां प्रताप के सैनिक पूरे शौर्य से लड़े थे। इस हार के बाद लगभग बीस वर्षों तक राणा प्रताप जीवित रहे और किसी ने भी उन्हे अपनी हार के कारण अपमानित नहीं किया।
मानसिंह युद्ध भूमि में राणा प्रताप का मोती जडित मुकुट पहन कर आ गया इसका लाभ उठाते हुए राणा प्रताप को अपने प्रिय घोड़े चेतक पर बैठकर वहां से बच निकलने का अवसर मिल गया क्योंकि अकबर के सैनिक मानसिंह को ही राणा प्रताप समझ कर उस पर टूट पड़े और उन्होंने उसे निर्दयता पूर्वक मार डाला। राणा प्रताप अपने गंतव्य स्थान उदयपुर सुरक्षित पहुंच गए। उनका चेतक घोडा उन्हे बचाने हेतु भागते भागते इतना थक गया था कि थकान के कारण उसने दम तोड़ दिया। राणा प्रताप ने अत्यंत दुःख के साथ उसे जीवन भर याद किया तथा उसकी स्मृति में एक समाधि एवं उसके साथ एक बगीचे का निर्माण करवाया।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद राणा प्रताप ने अपनी रणनीति में परिवर्तन करते हुए कुम्भलगढ़ को अपना केंद्र बनाया। वहाँ उन्होने भीलों की एक अति सुदृढ़ और अजेय सेना का निर्माण किया और इस सेना के साथ वे आजीवन अकबर को निरंतर परेशान करते रहे। मेवाड़ के लोग स्वेच्छा से अकबर और उसके किसी भी प्रतिनिधि का अपनी भूमि पर आगमन स्वीकार नहीं कर सके। उन्होंने किसी भी प्रकार के खाद्यान्न की खेती करना बंद कर दिया अथवा हल चलाना बंद कर दिया।
महाराणा प्रताप के अन्तिम दिन
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि अपने अंतिम समय में राणा प्रताप ने अकबर को अपने समर्पण हेतु पत्र लिखा था। इसका कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अपने पूरे जीवन काल तक जो व्यक्ति चित्तौड़गढ़ की मुक्ति हेतु लड़ता रहा और उसके बाद उसका पुत्र राणा अमर सिंह भी अपने पिता की लड़ाई को लडता रहा वहां से पत्र की संभावना असंभव सी है।
राणा प्रताप का शौर्य असीम था। हिंदू योद्धाओं में उनका नाम सर्वोपरि रूप से चमकता रहेगा[1]।
कुछ लोगों का मत है कि राणा प्रताप अनावश्यक रूप से हठी था। वे लोग अकबर के कभी भी क्षमा न किये जाने वाले उस अपराध को अनदेखा कर रहे है जब प्रतापसिंह के पिता उदयसिंह पर आक्रमण कर अकबर ने चित्तौड़गढ़ को अपने अधीन किया था और तब अकबर ने क्या क्या अत्याचार किए थे !! उसने अकारण गांवों, कस्बों और शहरों में आग लगवा दी थी, उसने सभी किलो और सुरक्षात्मक स्थलों को नष्ट कर दिया, उसने निर्दोष तीस हजार नागरिकों की हत्या करवा दी और उनकी कटी हुई खोपड़ियों से मीनार का निर्माण किया !
इससे प्रतापसिंह का क्रोधित होना स्वाभाविक है। इतिहासकारों का कथन है – “चित्तौड़गढ़ की विजय के बाद अकबर द्वारा जिस प्रकार 30000 निर्दोषि लोगों का नरसंहार किया गया उसने प्रताप तथा उसके प्रजाजनों को इस सीमा तक पीड़ा पहुचाई कि वे मुगलों के साथ फिर कभी भी किसी संधि अथवा समझौते की सोच भी नही सकते थे।” यद्यपि अकबर ने अपने अधीनस्थ राजपूतों का सम्मान किया था किंतु समकालीन कृतियों जैसे ‘दलपत विलास’ में इसके विपरीत भी उदाहरण देखने को मिलते है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]राणा शब्द राजा का समानार्थी शब्द है जो संस्कृत के ‘राज्ञा’ से व्युत्पन्न हुआ है। चूंकि मेवाड़ के राजा अपने कुलदेवता ‘एकलिंग स्वामी’ के प्रतिनिधि के रूप में शासन चलाते थे अतः उन्होने स्वयं को ‘राजा’ पद के सम्मान से स्वयं को वंचित करते हुए राणा शब्द का उपयोग किया था।