राणा प्रतापसिंह की सफलता और उपलब्धियॉ उसकी नीतियों की योग्यता और प्रभाव को सिद्ध करती है। अपने बाहर वर्षों के सतत प्रयासों के पश्चात भी अकबर उससे कुछ भी छीन सकने में सफल नहीं हो सका। राणा प्रताप ने अपने पिता से प्राप्त राज्य को बिना क्षति अपने पुत्र को सौंपा था। यदि प्रतापसिंह अकबर के समक्ष समर्पण कर देता तो उसका पुत्र अकबर के दरबार में एक सामान्य स्थिति को ही प्राप्त कर पाता। बाद की घटनाओं ने प्रतापसिंह की समस्त उपलब्धियों को लील लिया।
राणा प्रताप मात्र 57 वर्षों तक ही जीवित रहा। अपने पिता से प्राप्त मेवाड़ राज्य की सीमाओं को उसने सुरक्षित बनाये रखा तथा अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार भी किया तथा अनेक रणनीतिक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया। उसने सूरत जैसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक केन्द्र से अकबर की सारी व्यावसायिक गतिविधियों को बंद कर दिया। उसे सभी लोगों का प्रेम और सम्मान प्राप्त हुआ। उसे भीलों सहित सभी समुदायों का सहयोग प्राप्त होता रहा था।
इसके विपरीत हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों की इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में महाराणा प्रताप को एक हारा हुआ हताश राजा निरूपित किया जा रहा है जो मानसिक रूप से कमजोर हो गया था। समकालीन दरबारी कवियों ने उसके संबंध में झूठी कहानियाँ लिखी है जैसे कि – “जब अरावली के जंगलों में राणा प्रताप की छोटी पुत्री भूख से रो रही थी तो उसकी पत्नी ने जंगली धान की रोटियां बनाकर दी किंतु उसी समय एक जंगली बिल्ली उसके हाथ से रोटी छीन कर ले गई। अपनी पुत्री के दुःख से द्रवित हो कर तब राणा प्रताप ने अकबर को समझौते के लिए पत्र लिखा था” ऐसी झूठी कहानियॉ बनाई गई है। इसके विपरीत राणा प्रतापसिंह के समकालीन पृथ्वीराजसिंह ने स्पष्टतः कहा है कि उसके समान स्वभिमानी और साहसी योद्धा कभी भी ऐसे कायरों जैसा कृत्य कर ही नही सकता।
क्षणिक प्राकृतिक कमजोरियों को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करने की वृत्ति निंदनीय है। यद्यपि प्रतापसिंह हल्दीघाटी का युद्ध हार गया था फिर भी वह विजयोन्मुख हो कर उभरा। उसने अपने शत्रु को निरंतर रूप से कमजोर किया। उसने अपने राज्य की आर्थिक स्थिति को सुधार कर लोगों को शक्ति प्रदान की। इन सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए व्यावहारिक स्तर पर प्रताप सिंह विजेता ही बना रहा और इस प्रकार वह शौर्य, बल, युक्त जीवन जीने का एक आदर्श स्थापित कर गया उसे हार और नैराश्य के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है?
महाराणा प्रतापसिंह ने अपने साम्राज्य को समृद्ध और सुरक्षित बनाये रखा था। मात्र तीन दुर्ग उसके अधिकार में नही आ पाये। अपने अंतिम समय तक वह सभी राजपूतों के लिए अत्यधिक सम्मान का पात्र बना रहा।
शौर्य मूर्ति रानी दुर्गावती
शौर्य का एक दूसरा असाधारण उदाहरण चंदेल राजवंश की रानी दुर्गावती का है। वह गोंडवाल के चंदेल राजा कीर्तिसिंह की इकलौती पुत्री थी। कहा जाता है कि उसका जन्म मनियागढ़ की देवी मनिया के अनुग्रह से हुआ था। बचपन से ही उसने अनेक विषयों का अच्छा प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था तथा युद्ध कौशल तथा शस्त्र चालन में भी उसने विशेष निपुणता प्राप्त कर ली थी। गांव में नरभक्षी बाघों को वह आसानी से मार कर ग्रामवासियों को आतंक से मुक्त कर देती थी ऐसा अबुल फजल ने लिखा है। राजगौडा संग्रामसिंह के पुत्र दलपतिसिंह और मनियागढ के राजा से वह अपनी तलवार का मुकाबला कर चुकी थी जिससे प्रभावित होकर उन्होंने दुर्गावती को रत्न जड़ित तलवार उपहार के रूप में प्रदान की थी। ‘भवानी’ नामक इस तलवार को रानी दुर्गावती सदैव धारण किये रहती थी।
बाद में दलपतिसिंह ने स्वयं दुर्गावती से विवाह कर लिया था। वह गौंड परिवार का था जबकि दुर्गावती चंदेल वंश की थी। उनके माता-पिता ने समुदाय भेद को अनदेखा कर उनका विवाह कर दिया था। उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम वीरनारायण था। विवाह के पांच वर्षों के बाद ही अस्वस्थता के कारण दलपतिसिंह की मृत्यु हो गई। शत्रुओं के षड्यंत्रों के कारण दुर्गावती के पिता और ससुर भी चल बसे।
ऐसे कठिन समय में शेरशाह ने दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किंतु वह बड़े साहस के साथ लडी और विजयी हुई। कहा जाता है कि उसे हाथियों के संबंध में विशेष जानकारी थी। एक बार जब वह हाथी पर बैठकर नर्मदा नदी पार कर रही थी तब उसके महावत का पुत्र नदी में गिर गया तो दुर्गावती ने नदी में कूद कर बच्चे को बचाया और स्वयं पुनः हाथी पर सवार हो गई।
रानी दुर्गावती के राज्य में एक धनवान व्यक्ति ने एक गरीब आदमी को कुछ रुपये उधार दिये। वह गरीब आदमी उस धन को वापस न कर पाया तो उस वृद्ध धनिक व्यक्ति ने उस गरीब आदमी को बाध्य किया कि वह अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दे। राजकीय स्वीकृति प्राप्ति के लिए वह दुर्गावती को पचास हजार मुद्राएं भी देने को तैयार था किंतु रानी दुर्गावती ने उसे दंडित करते हुए एक निर्दोष कन्या की सुरक्षा की।
दुर्गावती का प्रशासन सुव्यवस्थित था। प्रजाजनों के हितों की सुरक्षा के लिए कठोर विधानों का प्रावधान था। दुर्गावती का राज्य आज के जबलपुर के निकट था जहां वर्षा का अभाव था अतः दुर्गावती ने अनेक जलाशयों का निर्माण करवाया था जैसे – रानीताल, अधारताल, चरिताल आदि जिनमें से आज भी कई ताल अस्तित्व में है।
रानी दुर्गावती ने बाज बहादुर और फतेह खान की सेनाओं को जीत लिया था। अपने अदम्य शौर्य और साहस के कारण वह अपने शत्रुओं के लिए एक दुःस्वप्न बन गई थी किंतु सतत युद्ध के कारण उसका खजाना खाली हो रहा था। अकबर की दृष्टि गोंडवाल पर लगी हुई थी। आसफ खान के नेतृत्व में मुगल सेना ने दुर्गावती के राज्य पर अधिकार कर लिया था। इस युद्ध में रानी दुर्गावती बड़ी वीरता से लड़ी और उसने शत्रु सेना को भागने पर विवश कर दिया। वह उनका पीछा करना चाहती थी किंतु उसके सलाहकारों ने रात्री में उसे पीछा न करने की सलाह दी क्योंकि उसके सैनिक थक चुके थे। किंतु रात्री में जब रानी की सेना निद्रामग्न थी मुगलों की सेना उन पर टूट पडी । रानी स्वयं बुरी तरह घायल हो गई थी। शत्रु के समक्ष समर्पण न करना पडे इस हेतु उसने स्वयं अपनी भवानी तलवार जो उसे उसके पति ने उपहार में दी थी, के द्वारा आत्मघात कर लिया। मरने से पहले उसने अपने हाथी को बहुत दुलार किया तथा अपने सारे गहने महावत को उपहार में दे दिये। अबुल फजल ने दुर्गावती के अदम्य शौर्य का वर्णन करते हुए उसके राज्य पर अकबर के अधिकार प्राप्ति के समय किये गये अमानवीय अत्याचारों का भी वर्णन करते हुए लिखा है कि किस प्रकार भयभीत नागरिक जलते हुए अग्नि कुण्ड़ों में कूद कूद कर मरते जा रहे थे। यह सब वर्णन उसने अकबर – नामा में लिखा है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.