औरंगजेब की मृत्यु के बाद मराठा, राजपूत, सिख और शक्ति संपन्न हो गये। सनातन धर्म का पुनर्जागरण होने लगा। नादिरशाह सतत रुप से दिल्ली के कमजोर शासको को इस स्थिति की चेतावनी देता रहा था। यह दक्षिण के निजाम का अहंकार था जिसने नादिरशाह जैसे लुटेरे आक्रांता को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। इसी प्रकार टीपू ने भी पठानों को भारत पर आक्रमण हेतु आमंत्रित किया था। यह सब कृत्य इस्लाम की प्रकृति के अनुसार उसके मानने वालों द्वारा स्वाभाविक रूप से किये जाते रहे – इतिहास के अध्येताओं के लिए उनके द्वारा इस्लाम को न मानने वालों लोगों पर किस तरह विभिन्न तरीकों से हिंसात्मक आक्रमण, अत्याचार व क्रूर व्यवहार किया जाता रहा है, यह सहज रूप से ज्ञात तथ्य है। मोहम्मद बिन कासिम से लेकर महमूद गजनी और मोहम्मद गौरी से कुतुबुद्दीन ऐबक, शमसुद्दीन इल्तुतमिश, गयासुद्दीन बलबन और अलाउद्दीन खिलजी से गियाद अल दीन तुगलक, मोहम्मद बिन तुगलक, फिरोजशाह तुगलक, इब्राहिम लोदी, हुमायूं, जहांगीर, शाहजहां से लगाकर बहमनी, आदिलशाह, टीपू और दक्षिण के नवाबों तक प्रत्येक मुस्लिम शासक ने भारत को ‘दर अल हर्ब’ से ‘दर अल इस्लाम’ में बदलने के लिए सभी उपलब्ध साधनों का उपयोग किया जिसमें अधिकांश अत्यंत क्रूरतापूर्ण, कपट युक्त और आडम्बर से भरे हुए थे। उन्होने अपने शासन को इस्लाम धर्म के आधार पर चलाया जंहा अन्य किसी भी धर्म, मतपंथ या संप्रदाय के लिए कोई सम्मान नही था न उनके लिए कोई सामान्य मानवीय अधिकार थे। कोई भी ईमानदार इतिहासकार मानवता के विरुद्ध किये गये इन मुस्लिम अत्याचारों की अति दुष्ट ता पूर्ण आपराधिक करतूतों को छिपाने का प्रयास नही करेगा।
जजिया के अतिरिक्त हिंदुओं की तीर्थ यात्राओं पर भी कर लगाया गया था। यह कर जैनियों और बौद्धों तथा सभी गैर-मुस्लिमों पर भी लगाया गया था। इतना ही नही, किसी पवित्र नदी या सरोवर में डुबकी लगाने पर भी कर था इसके अतिरिक्त हिंदू किसानो, व्यापारियो, मजदूरो और व्यवसाय करने वाले लोगों पर विशेष कर का प्रावधान था। केवल मुस्लिम का कोई कर नही देना पडता था। राजपूतों को छोड कर कोई गैर मुस्लिम न तो पालकी अथवा छोडे या हाथी की सवारी कर सकता था और न कोई अस्त्र शस्त्र रख सकता था। यदि इस्लामिक शासक की नजर में किसी हिंदू की कोई संपत्ति, भूमि, पत्नी या बच्चे पसंद आ जाते थे तो वे उन्हे तत्काल छीन लेते थे। जले में नमक छिड़कने के रूप में आये दिन मुस्लिम लोग हिंदुओं को अपमानित करते, उनका मजाक बनाते, उन्हें सताते और घृणा की दृष्टि से देखते थे। गैर मुस्लिम न तो नये मंदिर बना सकते थे, न पुराने मंदिरों की मरम्मत करवा सकते थे। मुस्लिम लोग जब चाहे जंहा चाहे इन मंदिरों का मनमाने ढंग से उपयोग करने को स्वतंत्र थे। हर हिंदू प्रत्येक मुस्लिम यात्री को अपने घर में ठहराने के लिए बाध्य था भले ही मुस्लिम उनके निजी कक्षों में घुस कर उनके समुदाय के सम्माननीयों को अपमानित करता रहे – किंतु हिंदू को यह सब स्वीकार करना पड़ता था।
हिन्दुओं को मुस्लिम लोगो को सम्मान देना अनिवार्य था। किसी भी गैर – मुस्लिम को चाहे वह किसी भी ऊंचे पद, प्रतिष्ठा या धनाढ्य वर्ग का हो, एक मुस्लिम से अच्छा रहन सहन रखने, कपडे पहनने, खाने पीने का अधिकार नहीं था। ऐसे अनेक प्रतिबंधों की एक लम्बी सूची है जो अति डरावनी है।
हिन्दुओं को आभूषण तथा शस्त्र रखना प्रतिबंधित था। हिन्दू संस्कृति की छाया तक मुसलमानों पर नहीं पड़ना चाहिए थी। हिंदुओं को मुसलमान बस्ती से दूर अति साधारण, असुविधाजनक तथा असम्माननीय स्थिति में रहना पड़ता था। हिंदू अपने तीज त्योहार सामाजिक रूप से नहीं मना सकते थे। घर पर किसी की मृत्यु होने पर या कोई संकट आने पर हिंदू लोग जोर से रो भी नही सकते थे क्योंकि इससे मुसलमानों की शांति भंग होती थी। इस प्रकार के अनेक तानाशाही पूर्ण नियम हिंदुओं पर लाद दिये गये थे। कोई भी हिंदू चाहे वह कितना भी प्रभावशाली हो इन राजकीय नियमों का विरोध नहीं कर सकता था। मुसलमान शासकों ने हिंदुओं को जीवित क्यों छोड़ रखा था? इसका उत्तर हमें अलाउद्दीन खिलजी के इस कथन में मिलता है जो उसने अपने मुल्लाओं के समक्ष दिया था –
इन हिंदुओं का उपयोग हमारे कार्य के लिए किया जाना है, वे हमारी सुविधा के लिए है, उन्हे परेशान कर हम अपना मनोरंजन कर सकते है
निडर सवाई जयसिंह द्वारा जाजिया की समाप्ति
इस परिप्रेक्ष्य में ऐसे अनेक वीर नायक हुए उन्होंने हिंदुओं को इस दुखद स्थिति से मुक्त कराने में तथा उनके सम्मान की रक्षा करने के अथक प्रयास किए थे। ऐसे सभी लोग सर्वोच्च प्रशंसा के योग्य है। इन्ही में से एक प्रमुख नाम सवाई जयसिंह का भी है।
अकबर के समय से ही अंबर (आमेर) प्रांत के राजपूत दिल्ली की राजधानी स्थित मुगल साम्राज्य के प्रति वफादार रहे थे। सवाई जयसिंह भी इसी राजपूत समुदाय से संबंधित थे। यद्यपि मुगल दरबार में अपने पूर्वजों की भांति ही उसे भी सभी अपमानजनक हिंदू विरोधी स्थितियों को सहन करते हुए बडा होना था तथापि तुलनात्मक रूप से वह अधिक स्वतंत्र था क्योंकि उसका जन्म औरंगजेब के पराभव काल में हुआ था। औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहादुर शाह जफर का वह एक बड़ा सहारा था अतः उसे ‘सवाई’ और ‘राजाधिराज’ की उपाधियों से सम्मानित भी किया गया था। इन सब स्थितियों के बाद भी जयसिंह राजपूतों की एकता को सुनिश्चित करते हुए अपने लक्ष्य साधने में प्रयत्नशील रहा।
राणा प्रताप की ही तरह उसमें भी दृढ़ संकल्प और शौर्य था कि जिससे वह मुगलों को सीधे युद्ध में भी पराजित कर सकता था किंतु व्यवस्था में बने रह कर भी अपनी लक्ष्य प्राप्ति के विरोधी कार्य को संपन्न कर सकने की क्षमता और बुद्धि चातुर्य उसमें था। यह सात्विक क्षात्र गुण का लक्षण जिसमें धैर्य पूर्वक संकट में भी अपने अस्तित्त्व को बनाये रखने की आवश्यकता होती है, जयसिंह में परिलक्षित होता है। उसमें शौर्य के साथ विवेक भी था। हमेशा बल ही अधिक सफल नही होता है। योद्धा के विशिष्ट स्वभाव पर भी स्थिति का निर्णय निर्भर करता है। मुगल साम्राज्य की व्यवस्था में बने रह कर भी जयसिंह ने जिन राजपूतों को एकत्रित कर मैत्री संबंध बनाया उसमें मेवाड का अमर सिंह, मारवाड़ का अजय सिंह तथा उसका विश्वस्त सेना प्रमुख एवं मंत्री तथा मार्गदर्शक दुर्गादास थे। यंहा तक कि बुंदेलखण्ड के छत्रसाल का भी उन्हे सहयोग प्राप्त हुआ। कुछ अन्य भी थे लेकिन वे मात्र अल्प कालीन मित्र सिद्ध हुए। यद्यपि जयसिंह सतत रूप से अपने शत्रुओं के साथ युद्ध में तथा सहयोगियों के साथ समझौता वार्त्ताओं में व्यस्त रहा फिर भी सनातन धर्म की पवित्रता और इस्लाम की हिंसक वृतियों के प्रति उसकी समझ स्पष्ट थी।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.














































