यहां भी दो प्रकार की समस्याए उपस्थित होती है – जब राज्य छोटा होता है तो बाह्य आक्रमण का भय बढ़ जाता है और यदि साम्राज्य अति विस्तृत है तो आंतरिक शत्रुओं से निपटना आवश्यक हो जाता है। इन दोनों ही दशाओं में ‘राग’ (आसक्ति, तृष्षा आदि) और द्वेष (शत्रुता, दुर्भावना आदि) के भाव मुख्य रूप से क्रियाशील होते हैं। आंतरिक शत्रुता की दशा में तो यह अत्यधिक प्रबलता से परिलक्षित होते है। किसी भी देश के प्राकृतिक संसाधन, आर्थिक सम्पन्नता, मैत्री भाव और आदर भाव के स्वभाव से युक्त रहवासी, बाहर के लोगों को वहां आने के लिए स्वाभाविक रूप से आकर्षित करते है किंतु अनेक प्रकरणों में लोगों का यही सम्मान जनक तथा आदर युक्त आतिथ्य भाव उन्हे कमजोर स्थिति में पहुंचा देता है। परिणामस्वरूप बाहर से आये लोगों में यह इच्छा जागृत हो जाती है कि वे अपने पाशविक बल से इन देशवासियों को अपने अधीन कर उनकी सम्पदा और संसाधनों को आसानी से छीन सकते है । इसका अन्तिम लक्ष्य पूरे देश को पराजित कर प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार बाह्य शक्तियॉ लुटेरों और अत्याचारियों के रुप में देश पर आधिपत्य जमा लेती है।
यदि यह शक्तियां उस देश की मूल संस्कृति को समझने की वृति से युक्त होती है तो समय व्यतीत होने के साथ साथ वे उस संस्कृति को भी सहानुभूतिपूर्वक अपनाने लग जाती है और स्वयं भी उसी में समा जाती है किंतु इसके विपरीत यदि यह शक्तियां मूलरूप से ही निर्दयी, अत्याचारी तथा असहनशील है तो[1] उस देश के रहवासियों में तथा आक्रमणकर्त्ताओं में एक लम्बा संघर्ष आवश्यक रूप से होता रहता है। और ऐसे प्रकरणों में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का सिद्धांत चरितार्थ होता है। पाशविक बल सारे बौद्धिक गुणों को, संपदा को, प्रकृति को, संस्कृति को तथा सेना को भी अपने प्रभाव में ले लेता है। हमारे पूर्वजों ने इन सब ही पक्षों को एक ही शब्द ‘श्री[2]’ में समाहित कर अभिव्यक्त किया था।
यदि हम सब पक्षों से युक्त शक्ति संपन्नता को विवेकपूर्ण ढंग से जागरूक रह कर उपयोग में नही लाते है तो यह लापरवाही अन्ततः हमारे पतन का कारण बन जाती है। इसी कारण कौटिल्य ने कहा था कि “सतत सजगता के साथ अपनी शक्ति का नियमित निरीक्षण[3]” आवश्यक है। इतनी गंभीर चेतावनियों के बाद भी यदि बडी बडी ऐतिहासिक मूर्खतापूर्ण भूले की जाती रहें तब क्या किया जा सकता है ? मनुष्य का सहज स्वभाव ही अपूर्णता की परिभाषा है। इसी कारण से हम कल्हण के भावों के साथ अपना स्वर मिलाते है जिसने महान ऐतिहासिक ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ में लिखा था –
आह ! इन बडे बडे हाथियों के समान राजाओं को देखो ! वे प्रसिद्धि की नदी में स्नान कर स्वयं को पवित्र कर लेते है किंतु साथ ही वे दुर्गुणों की मिट्टी अपने शरीर पर डालकर पुनः अपवित्र हो जाते है[4]
हमें अपने मूल लक्ष्य और आदर्श को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए यह सरस्वती नदी के समान सदैव सनातन धर्म की रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होता रहता है। प्रत्येक रस की सार्थकता शांतरस में परिणित होने में है। इसी प्रकार अर्थ और काम की सार्थकता उसके धर्म और मोक्ष की उद्देश्य प्राप्ति में है। इसी प्रकार वीर रुद्र तथा श्रृंगार – भयानक रस को शांत रस में ही समाहित होना चाहिए। यहां कल्हण को पुनः स्मरण करते है –
यह सारा विश्व तथा इसका संपूर्ण प्राणीजगत कितना अनित्य है, जब हम एकात्म भाव का मनन करते है तो अनासक्ति और शांति की सर्वोच्चता की आवश्यकता हमारे मन में चमक उठती है[5]
हमें भारतीय क्षात्र परम्परा का गंभीरता के साथ पूरी श्रद्धा प्रेम और आदर के साथ नियम पूर्वक अध्ययन करना चाहिए। इस दिशा में हमें तब तक लगे रहना है जब तक कि हम थक न जावें। हमें अपनी ऐतिहासिक पराजयों तथा क्षतियों से निराश न होकर एक कर्मयोगी की तरह प्रयत्न करना होगा। हमें अपने राष्ट्र की पूजा करना होगा। इस प्रकार जब हम अपने इतिहास का अभिलेखन करें तब हम राग और द्वेष से मुक्त हो सकेंगे। हम पुनः कल्हण को स्मरण करते हैं जिसने एक आदेशात्मक आदर्श को प्रस्तुत किया है –
श्लाघ्यः स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृतः।
भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती॥(राजतरंगिणी 1.7)
हमे हमने वैयक्तिक पंथ तथा वर्ण से ऊपर उठना होगा। हमें अपनी इच्छाओं, वैयक्तिक लाभ तथा अहंकार को त्याग कर सत्वभाव से भारतवर्ष की सेवा करना होगा। इस दृष्टिकोण के साथ हमें आज के भारत का मूल्यांकन कर उसके भविष्य की राह बनाना होगी। केवल पूर्ण अध्यात्म से परिपूर्ण आधार शिला ही इस प्रकार के विवेक और शांति को प्राप्त कर सकती है। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है।
आज भी भारतीय क्षात्र परम्परा का महानद प्रवाहमान है। हमें उसकी पवित्रता को सुरक्षित रखना है, इसके वैभव में नियमित स्नान कर प्रतिदिन स्वयं की आत्मा को दिव्यता प्रदान करना है। हम इस विमर्श को कल्हण की राजतरंगिणी के अंतिम श्लोक – भरत वाक्य के साथ समाप्त करते है –
गोदावरी नदी जो अथाह जलराशि के साथ प्रवाहमान है, समुद्र तक पहुंच कर सात शाखाओं में फैल जाती है जो एक ही महानद का मुहाना है। इसी प्रकार क्षात्र परम्परा के महानद का प्रवाह जब सभी लोगों के आंतरिक समुद्र तक पहुंचेगा तब विभिन्न ज्वार भाटों के साथ उसके विभिन्न मोड, राहों और तरंगों द्वारा जीवन को पोषित करने वाले गुणों से आश्चर्यचकित करता हुआ अन्ततः आत्मा की शांति को प्रदान करने वाला होगा![6]
महान क्षत्रिय का जन्म जन समुदाय में से ही होता है[7]। तदुपरांत वही क्षत्रिय अपने जन्म के लिए इन्ही लोगों को जिम्मेदार मान कर उन्हे अपनी संतान के रूप में संरक्षित करता है। आज के हमारे प्रजातंत्र में एक नेता [प्रमुख रूप से जो देश का नेता हो] को सैन्य प्रशिक्षण के लिए जाना आवश्यक नही रह गया है, उसे जनता के मध्य घुलना – मिलना आवश्यक है। यह आदर्श है। यही जनता की भी आवाज है तथा नदी और समुद्र का तुलनात्मक साम्य है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]इसके प्रमुख उदाहरण – इस्लाम, ईसाइयत तथा साम्यवादी शक्तियॉ है जिसकी नींव ही क्रूरता, असहिष्णुता, कपट और धृष्टता पर आधारित है।
[2]वी.एस. आप्टे की संस्कृत – अंग्रेजी शब्दकोश के अनुसार ‘श्री’ शब्द का अर्थ – धन, संपदा, वैभव, समृद्धि, बाहुल्य, राजसिकता, प्रभावशालिता, सम्मान, उच्चपदस्थता, सौंदर्य, लालित्य, भव्यता, चमक, रंग आदि पक्षों से युक्त धनलक्ष्मी है।
[3]राज्ञो हि व्रतमुत्थानम् (कौटिल्य अर्थशास्त्र 1.19)
[4] चित्रं नृपद्विपाः पूतमूर्तयः कीर्तिनिर्झरैः।
भवन्ति व्यसनासक्तिपांसुस्नानमलीमसाः॥(राजतरंगिणी 5.164)
[5]क्षणभङ्गिनि जन्तूनां स्फुरिते परिचिन्तिते।
मूर्धाभिषेकश्शान्तस्य रसस्यात्र विचार्यताम्॥(राजतरंगिणी 1.23)
[6]गोदावरीसरिदिवोत्तुमुलैस्तरङ्गैर्वक्त्रैः
स्फुटं सपदि सप्तभिरापतन्ती।
श्रीकान्तिराजविपुलाभिजनाब्धिमध्यं
विश्रान्तये विशति राजतरङ्गिणीयम्॥
[7]जनयन्ति राजानमिति महाजनाः














































