प्रारम्भ से ही वह मुस्लिम बादशाहों की गतिविधियों नियमों, उनके धार्मिक विश्वास, अन्याय, असहशीलता तथा अविश्वसनीय व्यवहार को देखता आया था जो अवगुण उन्हे इस्लाम के अनुयायी के रूप में प्राप्त हुए थे। वह शुरू से ही समझ चुका था कि इसे समाप्त करने हेतु राजपूतों, मराठाओं, सिखों, और जाटों का एक होना आवश्यक है तथा इसके लिए वह (जयसिंह) अथक प्रयास करता रहा। मुगल साम्राज्य का दरबारी होने का लाभ लेते हुए जयसिंह ने राजपूतों और मराठाओं के मध्य विशेष संबंध स्थापित करने में सफल मध्यस्थता की थी। अपनी इस चतुराई के कारण एक ओर उसे पेशवाओं का तथा दूसरी ओर मुगल शासकों का समर्थन प्राप्त होता रहा।
अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए जयसिंह ने तीर्थयात्राओं तथा तीर्थ क्षेत्रों पर लगने वाले जजिया कर को सदा के लिए हटवा दिया। इस पवित्र कार्य का सारा श्रेय जयसिंह को ही जाता है। जब बहादुर शाह ने जयसिंह को दो करोड़ का इनाम देना चाहा तब इस इनाम के बदले जयसिंह ने इस कर को समाप्त करवाने के आदेश पारित करवा लिए।
इसके अतिरिक्त जयसिंह ने थके हारे यात्रियों की सुविधा के लिए मथुरा, वृंदावन, काशी, गया, पूना, काबुल, लाहौर, आगरा, दिल्ली, चित्रकूट, अयोध्या, हरिद्वार, उज्जैन, तथा अन्य सभी पवित्र स्थलों पर विश्राम गृहों तथा धर्मशालाओं का निर्माण करवा दिया था। इन सब कार्यों में उसने केंद्रीय सत्ता से अपनी निकटता के प्रभाव का भरपूर उपयोग किया। इससे कालान्तर में वह राजपूतों का प्रमुख बन गया और मुगल साम्राज्य की पूर्ण उपेक्षा करने लगा। उसने हिन्दुओं को संगठित करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। जयसिंह ने जान लिया था कि अब आने वाला समय मराठाओं के प्रभुत्व का है और उससे वह संतुष्ट था।
जयसिंह एक कुशल प्रशासक तथा उग्र योद्धा था। अपने शासनकाल में उसने सभी कार्यालयी अभिलेखों को संस्कृत, फारसी तथा स्थानीय भाषा में लिखवाया था। शासकीय कार्यों में संस्कृत के उपयोग को पुनः स्थापित करने का जयसिंह को श्रेय जाता है। पचास हजार सैनिकों की सेना का प्रत्येक सैनिक अच्छा पढ़ा लिखा था तथा उसकी सेना उस काल में भारत की अत्याधुनिक सेना थी। उसे अस्त्र-शस्त्रों, बारूद, बंदूको, तोपों आदि का विस्तृत व व्यापक ज्ञान था। विविध विषयों से संबंधित पुस्तकों को उसने विश्व भर से मंगवा कर इकठ्ठा किया था। उसने सभी स्थानों से विद्वानों और वैज्ञानिकों को आमंत्रित कर उनके ग्रंथ लिखवायो थे। वह स्वयं भी एक अच्छा विद्वान व्यक्ति था। उसने वेदो, वेदांगों तथा वेदांत का अध्ययन किया था। उसने अपने राज्य में वैवाहिक समारोह में अनर्गल खर्च पर रोक लगा दी थी तथा कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध कडे नियम लागू कर दिये थे।
आधुनिक जयपुर का वह निर्माता था। उसने इस शहर को भारतीय परम्परागत शिल्पकला के साथ नवीनतम तकनीक का उपयोग करते हुए सजाया था। उसने व्यापार, उद्योग, कला, कृषि, तथा रोजगार को बढ़ाने वाले कार्यों को प्रोत्साहित किया था। उसके काल में हरिहराद्वैत, भक्ति भाव तथा पारंपरिक धार्मिक कर्मकांड का व्यापक प्रसार हुआ था।
जयसिंह खगोलशास्त्र के प्रति अत्यधिक आकर्षित था। उसे पंचांग संबंधी गहरा ज्ञान प्राप्त था। तारों की गति, रात्रिकालीन आकाशीय अध्ययन तथा ग्रहों की चाल व स्थिति का वह ज्ञाता था। उसने इन विषयों के अध्ययन का प्रोत्साहित भी किया था। उसने दिल्ली, मथुरा, जयपुर, वाराणसी और उज्जैन में बडी बडी वेधशालाओं की रूपरेखा तथा उनका निर्माण किया। उसने युरोप व अरब देशों से खगोल शास्त्र के ज्ञान के साथ भारत के पारम्परिक ज्योतिष विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन कर उनमें सामंजस्य पूर्ण अध्ययन को प्रोत्साहित किया था। यह उसकी एक महान उपलब्धि थी। उसने जयपुर वेधशाला में यूरोप और अरब देशों के महान खगोल शास्त्रियों को आमंत्रित किया था तथा अपने विद्वानों को भी अध्ययन हेतु विदेश के खगोल – केन्द्रों पर भेजा था। यूक्लिड ज्यामिति तथा रसायन शास्त्र पर टॉलमी के ग्रंथ का उसने संस्कृत में अनुवाद करवाया था।
सन् 1734-35 में जयसिंह ने चार महान क्षत्रिय यज्ञ करवाया जिसमें अश्वमेध यज्ञ भी था। यह उनके क्षात्र भाव व साम्राज्य विस्तार का द्योतक था। ऐसे यज्ञ भारतीय इतिहास की स्मरण योग्य घटनाएँ रही है जिन्हे भारत के कुछ ही गिने चुने सम्राटों जैसे - भरत, दिलीप, राम और युधिष्ठिर तथा बाद में पुष्यमित्र शुंग, गौतमीपुत्र शातकर्णी, समुद्रगुप्त, पुलकेशी और राजराजा चोल द्वारा संपन्न किया गया था। मध्ययुग के इतिहास में मात्र जयसिंह ने ही अश्वमेध यज्ञ किया था जबकि उस समय इस्लाम के कारण व्यापक अव्यवस्था व्याप्त थी – यह एक अत्यधिक अर्थपूर्ण उपलब्धि थी - शास्त्रीय अर्थात वैदिक दृष्टि से भी तथा सांसारिक प्रसिद्धि की दृष्टि से भी। सन् 1708 में वह वाजपेय यज्ञ भी संपन्न कर चुका था।
इस प्रकार सवाई जयसिंह ने शस्त्र और शास्त्र दोनों में महारत प्राप्त कर शुक्र नीति तथा बृहस्पति नीति दोनो का उपयोग करते हुए अपनी पूर्ण क्षमता के साथ सनातन धर्म के सम्मान को शिखर तक पहुचाते हुए सदा के लिए देश के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया है।
आदर्श क्षत्रिय नारी :- अहिल्या बाई होल्कर
मुगल साम्राज्य के पतन के समय सवाई जयसिंह की ही भांति सनातन धर्म की सेवा में अथक प्रयास करने वाली आदर्श नारी अहिल्या बाई होल्कर थी। वह मराठा समुदाय की उन महान नारियों की परम्परा में एक प्रमुख नारी थी जिसने अपने क्षात्र धर्म का अनुकरणीय वहन किया था। इस क्षात्र भाव को शिवाजी की माता जीजाबाई तथा संभाजी (शिवाजी का पुत्र) की पत्नी यशुबाई में भी देखा गया था। संभाजी को मुगलो ने बंदी बना कर इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए अनेकानेक यातानाऍ दी थी किंतु सब सहन करते हुए अंततः संभाजी शहीद हो गये किंतु उन्होने अपना धर्म परिवर्तन नही किया। संभाजी की मृत्यु के बाद यशुबाई अपने नन्हे पुत्र साहू का आसानी से राज तिलक कर सकती थी किंतु उसने विवेक पूर्ण औदार्य का परिचय देते हुए अपने देवर राजाराम को शासन का भार सौंप दिया। इतना ही नही प्रशासकीय प्रकरणों में उसने राजाराम को यथोचित सलाह व सहायता प्रदान की तथा मराठा संगठन को मजबूत करने में अपना अमूल्य योगदान दिया। दक्षिण भारत में राजाराम मराठा शक्ति को सुदृढ़ करने का प्रयास कर ही रहा था कि उसकी असामयिक मृत्यु हो गई। तब उसकी पत्नी ताराबाई ने अपने नावालिग बेटे को शासनारूढ़ कर स्वयं प्रशासन का कार्यभार सम्हाल लिया। सैन्य संगठन और अपने राजनैतिक कौशल के कारण उसकी बडी ख्याति हुई थी। इस प्रकार मराठा समुदाय में अनेक योग्य और प्रसिद्ध महिलाऍ हुई है तथापि इन सबमें सर्वोपरि तथा सर्वश्रेष्ठ क्षत्राणी अहिल्याबाई होल्कर है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.














































