चोल लोगों पर यह बड़ा आरोप लगाया जाता है कि वे वैष्णव विरोधी थे। इसको प्रमाणित करने के कोई ठोस साक्ष्य नहीं है। राजराज तथा राजेन्द्र चोल दोनों ने ही अनेक विष्णु मंदिरों का निर्माण करवाया था। नागपट्टनं में उन्होंने बौद्ध विहार का निर्माण करवाया था। पुडुकोट्टई जिले के सित्तनवसल में जो सिद्धों का केंद्र स्थान है, जैनों की सुरक्षा तथा सहयोगार्थ उन्होंने खुल कर मदद की। उसी स्थान से सिद्ध-प्रणाली की औषधि का प्रारम्भ हुआ। तमिल साहित्य में जैन लोगों का योगदान भी अत्यधिक रहा है।
कांची के किसी भी विष्णु मंदिर को नष्ट नहीं किया गया यह चोल राजाओं की समावेशी नीति का साक्ष्य है। इसी काल में अनेकानेक जैन संगठन और संस्थाएं अस्तित्व में आई। कांची बौद्ध लोगों का भी एक बड़ा केंद्र था।
यद्यपि चोल लोग शिव भक्त थे फिर भी उन्होंने कभी भी किसी अन्य मत पंथ के लोगों को नहीं सताया। इसका कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं मिलता है कि वे धार्मिक रूप से कट्टरपंथी थे। रामानुजाचार्य को चोल राजा द्वारा सताये जाने तथा उनका होयसल साम्राज्य में शरण लेने की घटना को बहुधा उद्धृत किया जाता है किंतु यह एक मनगढ़ंत कहानी है। इसी प्रकार से चिदंबरम के गोविन्दराज की मूर्ति को समुद्र में फेंकने की अफवाह भी एक नंगा झूठ है। अद्यतन शोध कार्यों द्वारा इन सभी प्रकार की झूठ को निर्णयात्मक रूप से उजागर किया जा चुका है।
चोल का सैन्य बल अति विशाल था। साठ हजार हाथियों तथा उससे दस गुना पैदल सैनिक इसमें सम्मिलित थे। होयसलाओं तथा कल्याण चालुक्यों के साथ उनका हमेशा युद्ध चलता ही रहता था। उन्होंने देव गिरी के यादवों तथा कलिंगों के साथ भी अनेक युद्ध किये।
राजेन्द्र चोल ने कलिंग देश पार कर गंगा तट पर जाकर उसका जल प्राप्त किया और बृहदेश्वर के देव का अभिषेक किया। इस कारण से उसे सम्मान से ‘गंगैकोंडचोल’ कहा गया। अपने बंगाल के एक अभियान में उसने शैव परम्परा के सभी साधुओं को आमंत्रित कर उन्हे कांची में बसने का निवेदन किया था। उसके शौर्य को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि वह कोई भी युद्ध नहीं हारा था। राजेन्द्र चोल स्वयं अपनी सेना का प्रमुख सेनापति था तथा नौसेना का श्रेष्ठ प्रमुख था। जब राजा स्वयं युद्ध क्षेत्र में सेना का नेतृत्व कर रहा है तो निसंदेह सैनिकों का आत्मबल आसमान छूने लगता है।
राजेन्द्र चोल ने शक्ति के विकेंद्रीकरण पर अत्यधिक बल दिया। जब तंजावूर राजधानी थी फिर भी ‘गंगैकोंडचोलपुरं’ शक्ति का केन्द्र था। विक्रमचोलपुरं (आज के कोलार जिले में चिंतामणि) उत्तरी राजधानी था। तलकाड़ तथा कांची क्षेत्रीय राजधानियॉ थी। उसके प्रशासकीय व्यवस्था ने आज के ग्राम पंचायत के आदर्श को अपनाया था। प्रशासकीय दक्षता बनाये रखने हेतु साम्राज्य को विभिन्न इकाइयों में आकार के आधार पर वर्गीकृत किया गया था जैसे – सभै, कुरि-सभै, पेरुं-सभै, नगरं, वारियं, इत्यादि । प्रशासन के कार्यों को संपादित करने के लिए चुने हुए लोगों की समितियों को बनाया गया था। अधिकारीगण गांव के प्रकरणों को स्थानीय रूप से ही सुलझाने का प्रयास करते थे। दण्ड नीति बड़ी कठोर थी। यद्यपि संसाधन तथा संपत्ति अर्जनार्थ वर्ण, जाति और श्रेणी का अस्तित्व था किंतु रचनात्मक सहयोग के साथ सभी समुदाय समान रूप से कार्य करते हुए सामंजस्य बनाये रखते थे।
अन्य साम्राज्यों की तुलना में चोल साम्राज्य के नागरिकों का जीवन तथा रहन-सहन श्रेष्ठ स्थिति में था। महिलाओं द्वारा विपणन तथा ब्याज वसूली मुख्य रूप से की जाती थी और वे आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र थी। मंदिर निर्माण में चोल बड़े निर्माता रहे। उनके निर्मित मंदिर औषधि विज्ञान के केन्द्र रहे तथा वहाँ समाज और संस्कृति के विभिन्न पक्षों से संबंधित केंद्र क्रियाशील रहे।
यह ऐसी कुछ अमर तथा अनमोल देन है जो राजेन्द्र चोल और राजराज चोल द्वारा प्राप्त हुई है।
नायकों का योगदान
इसके बाद तमिलनाडु में नायक लोगों के शासन का उद्भव प्रारंभ हुआ। यह राजवंशीय शाखा पूर्व काल में विजयनगर साम्राज्य का ही एक अंश थी। चोल लोगों के बाद पांड्या लोग प्रभुत्व में आये तदुपरांत राजनैतिक शक्ति का समावेशन विजयनगर साम्राज्य में हो गया।
जिंजी, तंजावूर तथा मदुरई क्षेत्र पर शासन करने वाले नायक पहले विजयनगर साम्राज्य के अधीनस्थ क्षेत्रीय प्रमुख रहे थे। इन नायक राजाओं में विश्वनाथनायक एक प्रमुख नाम है जिसने तंजावूर को राजधानी बना कर शासन किया था। यद्यपि वह विजयनगर साम्राज्य के अधीन था किंतु उसने अपनी प्रतिभा और शक्ति के दम पर अपनी स्थिति को उन्नत कर लिया। विजयनगर साम्राज्य से प्रेरणा पाकर नायको ने उनके अनेक कार्यों को समझ कर तमिलनाडु में भव्य मंदिरों के सौंदर्यीकरण, प्रबंधन और निर्माण कार्य किये तथा मंदिरो को भव्य और विस्तृत क्षेत्र, सुरक्षात्मक संरचना, असाधारण शिखर, बरामदे जहां हजारों स्तंभ लगे हो, पूजा के अगणित देव स्थान, के साथ विभिन्न त्योहारों पर भव्य आयोजनों, मंदिर के कर्मचारियों को उचित सम्मान तथा पुरस्कार प्रदान करने की व्यवस्था प्रदान की। साथ ही इससे व्यापार और विपणन को भी बढ़ाया।
तेलगू के शास्त्रीय साहित्य में इस काल को ‘दक्षिणान्ध्र-युग’ की संज्ञा (दक्षिणी आंध्र का युग) प्रदान की गई थी। नायको ने खुले हृदय से काव्य, संगीत रचना, गीत और नृत्य की विधाओं का पोषण किया था। वैदिक पाठ, पूजा तथा धर्मशास्त्रों के विकास को प्रोत्साहित किया था। बाद में जब तंजावूर में भोंसले शासक आये तब संस्कृत भाषा में पहले से ही तेलगू तमिल और कन्नड़ भाषा के प्रभाव के साथ साथ मराठी भाषा की सुगंध भी मिल गई।
नायको के शासन काल में बाद के वर्षों में पंथवादी संकीर्ण मानसिकता में बढ़ोतरी होती गई। शैव तथा वैष्णवों के मध्य के विवाद सभ्यता की सीमा लांघ रहे थे। इस संप्रदायवादिता के फल स्वरूप सत्रहवीं शताब्दी तक क्षात्र भाव गंभीर रूप से आहत हुआ था।
मदुरई के नायक चोक्कनाथ द्वारा तंजावूर के नायक विजयराघव की हत्या कर देने के उपरांत नायक युग का पराभव प्रारंभ हो गया।
तमिलनाडु के महानतम योद्धाओं में नरसिंहवर्मा पल्लव, राजराज चोल तथा राजेन्द्र चोल का नाम आता है। कर्नाटक में मै पुलकेशी द्वितीय, विक्रमादित्य छठा , बिट्टीदेव, प्रौढ़देवराय, कृष्णदेवराय, सोमेश्वर द्वितीय जैसे महान योद्धा हुए। इन लोगों ने भारत का स्वर्णिम इतिहास लिखा। राष्ट्रकूट जो पूर्ण रूप से कन्नडिगा थे, तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठतम योद्धा थे। सेवुण लोग भी साहसी योद्धा थे। शायद इसी कारण से दसवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य, उत्तर-मध्य भारत के निवासी कवि राजशेखर ने व्यंग्यात्मक रूप से ही सही कन्नड वासियों को अति महत्वाकांक्षी तथा जन्मजात युद्ध-प्रवीण बतलाया। किंतु सोलहवीं शताब्दी तक इस वैभवशाली क्षात्र परम्परा की आभा क्षीण हो चुकी थी।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.