उन्हे इस्लाम धर्म स्वीकरा करने के लिए बाध्य किया जाने लगा। उस समय वहाँ उपस्थित काजी ने कहा कि गोविंद सिंह चूंकि हमारा शत्रु है इसके लिए इन बच्चों को सजा न दी जावे। परन्तु इस्लाम धर्म स्वीकार न करने के अपराध में उन्हे जिंदा ही दीवार में चुनवा कर निर्दयता पूर्वक मार दिया गया। इन बच्चों को खडा कर उसके आसपास तीन फुट मोटी ईट व चूने की दीवार बनवा दी गई। उस समय बडे भाई जोरावर सिंह की आंखों में आंसू देख कर छोटे भाई फतेह सिंह ने पूछा कि क्या आप डर के कारण रो रहे हो ? तब बडे ने उत्तर दिया – मै डर से नही किन्तु तुम मुझसे छोटे हो अतः तुम मुझसे पहले मृत्यु को प्राप्त होओगे। धर्म के लिए तुम मुझसे पहले प्राण त्यागोगे । मुझे दुख है कि मुझे यह सौभाग्य प्राप्त न हो सका । दीवार निर्माण के एक घंटे बाद उसे तोडा गया और शवों के टुकडे टुकडे किये गये। गुरु गोविंद सिंह की माता गुजरी देवी को किले के शिखर से नीचे गिराकर मार डाला गया। जब एक धनाढ्य व्यापारी टोडरमल ने अंतिम संस्कार के लिए इनके मृत शरीर को प्रदान करने का निवेदन किया तो उसे कहा गया कि जिस स्थान पर अंतिम संस्कार किया जाता है उसे पूरी तरह से स्वर्ण मुद्राओं से पाट दिया जाने पर ही उसे यह अवसर दिया जा सकेगा। टोडरमल ने तदनुसार पूरे स्थान पर स्वर्ण मुद्राएँ बिछा कर शर्त पूरी कर उस महान वीर माता तथा दोनो शहीद बालकों का अंतिम संस्कार संपन्न किया।
जब गुरु गोविंद सिंह पर उपर्युक्त घटना की सूचना पहुंची तो आंसू बहाने के स्थान पर उन्होंने घोषणा की कि ‘मुगल साम्राज्य ने अपनी मृत्यु को देख लिया है’ !!
माधवदास नाम का सन्यासी था, उसके आसन पर जो भी बैठता तो आसन उसे लपेट लेता था किंतु गुरु गोविंद सिंह उनके आसन पर आसानी से बैठ गये। इससे प्रभावित हो कर माधवदास न कहा ‘मै आपका बंदा (सेवक) हूं’ और उसने गुरु के समक्ष समर्पण कर दिया। तब गुरु ने आदेश दिया ‘केवल बंदा होना ही काफी नही है तुम्हे बहादुर भी बनना होगा’ । यही माधवदास बाद में बंदा बहादुर के नाम से बडी सैन्य शक्ति के साथ लडकर एक सिख साम्राज्य को स्थापित कर सका था।
खालसा पंथ का जन्म
अपने बच्चों और शिष्यों पर किये गये अत्याचारों से दुखी हो कर गुरु गोविंद सिंह ने मुगलों से लडने के लिए एक अलग पंथ की स्थापना की। इस प्रकार जो लोग शांति के साथ हिंदू परंपराओं को मानने वाले थे उनकी रक्षार्थ ‘खालसा पंथ’ का जन्म हुआ। गुरु गोविन्द सिंह के स्वयं के शब्दों में –
चिडियों से मै बाज बनाऊ, सवा लाख से एक लडाऊ
सन् 1699 के वैशाख मास में पवित्र वैशाखी पर्व पर नयनादेवी नामक कस्बे में अस्सी हजार लोग एकत्रित हुए थे। उस अवसर पर गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी कृपाल चमकाते हुए अपना यह उद्बोधन दिया - “आज के समय में हमें अपने देश की सुरक्षा के लिए चंडी देवी की पूजा आवश्यक हो गई है किंतु यह पूजा दीप धूप की नहीं होगी! यह पूजा हमारे रक्त द्वारा की जाएगी ! आप में से कौन है जो अपना रक्त देने को तैयार है !!
दयाराम खत्री नाम का एक ब्राह्मण सामने आया। गोविंद सिंह उसे एक कक्ष में ले गये। अन्दर से किसी को काटने की आवाज आई और गुरु गोविंद सिंह अपनी रक्तरंजित तलवार लेकर बाहर आये। इसके बाद दिल्ली का एक जाट युवक धरमदास आगे आया। इसके बाद द्वारका के धोबी मोहक चंद का नम्बर आया। इसके बाद बीदर (जो आजकल कर्नाटक में है) के एक नाई साहेब चंद और उसके उपरांत जगन्नाथ पुरी के जल-सेवा देने वाले हिम्मत राय आगे आये। इन सब ही के साथ पूर्ववत गोविंद सिंह उन्हे कक्ष में ले जाते और बाद में रक्त सनी तलवार के साथ बाहर आते रहे।
वहां बैठे सभी बुजुर्ग लोग चिल्लाने लगे – ‘बहुत हो गया ! बंद करो यह हत्याऍ !’
इसपर गुरु गोविंद सिंह ने उन पांचो लोगो को कक्ष से बाहर लाकर खडा कर दिया। वस्तुतः उन्होने पांच बकरों की बलि दी थी। उन्होंने उपस्थित भीड़ से कहा ‘यह मेरे पांच प्यारे है’ । इस प्रकार गुरु गोविंद सिंह ने पांच ऐसे लोगों का चुनाव किया जो अपने प्राण न्योछावर करने को तत्पर थे। इनमें से तीन कथित रूप से निम्न वर्ग के तथा दो उच्च वर्ग के व्यक्ति थे। गुरु गोविंद सिंह ने कहा –
है अर्ज तू खालिश होवे।
हंस हंस शीश धरमहित नोवे।।
इसके उपरांत गोविंद सिंह ने दूध और जल का मिश्रण बनाया जिसमें पांच प्यारों की माताओं ने क्रमशः शक्कर मिलाई । गुरु ने इसे अपनी तलवार तथा स्वयं अपने हाथों से मिलाया और पांच प्यारों को पिलाया। और फिर उन्होंने अपने ही शिष्यों से दीक्षा ग्रहण की ! इसे देख कर वहां उपस्थित लोग बोल उठे ‘वाहे गुरु’ !! और यही बाद में पवित्र मंत्र बन गया। हजारो लोगो ने इस नये पंथ की दीक्षा ग्रहण की। जिसमें पांच क – केश, कंग, कडा, कांच (धोती) तथा कृपाण धारण करना आवश्यक था। गुरु गोविंद सिंह आगे कहते है –
सकल जगत में खालसा पंथ गाजे ।
जागे सकल धर्म हिंदू बंध बाजे ।।
इस प्रकार गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की एक बड़ी योद्धाओं की सेना का निर्माण कर लिया। उन्होंने महिला और पुरुष की समानता, सती प्रथा का विरोध, विधवा विवाह की स्वीकृति तथा गरीबों तथा असहायों के प्रति दया और प्रेम का उपदेश दिया।
जहां खालसा पंथी केश धारी थे वहीं जो अन्य सहजधारी पंथ के लोग भी बढते गये। इनमें से अपने पांच शिष्यों कर्मासिंह, खाडासिंह, वीरसिंह, सेनासिंह और रामसिंह को गुरु ने वेदों और उपनिषदों के अध्ययन हेतु काशी भेजा। समय के साथ यही बाद में निर्मल पंथ बन गया।
खालसा पंथ क्षात्र चेतना का प्रशिक्षण देता है वहीं निर्मल पंथ ब्राह्मभाव की शिक्षा प्रदान करता है। इस तरह वेदों का ब्रह्म-क्षात्र समन्वय का शंखनाद एक बार पुनः गुंजायमान हो गया।
यह सुखद संयोग ही है कि पंजाब वेद भूमि पर ही स्थित है। आज के हरियाणा का क्षेत्र जो पहले पंजाब में था वह प्राचीन ब्रह्मवर्त का ही भूभाग है।
सरस्वतीधृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् |
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते || मनुस्मृति 2.17
आज का कुरुक्षेत्र प्राचीन ब्रह्मवर्त है। यहीं से वेदों का प्रादुर्भाव हुआ है। उद्भट विद्वान सेडियापु कृष्ण भट्ट ने अपनी पुस्तक ‘तथ्य दर्शन’ जो कन्नड़ भाषा में लिखी गई है, इस संबंध में विस्तृत विवरण दिया है। खालसा पंथ का उद्भव भी इसी पवित्र स्थान पर हुआ है। सिख पंथ द्वारा ब्राह्म और क्षात्र के आदर्शों का एक बार पुनः समन्वय हुआ है। सिखों में क्षात्र भाव के तेज को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि इस समुदाय में कोई भिखारी नहीं दिखेगा। किंतु आज के इस पतनोन्मुख समय में हम इस महान सिख परम्परा पर बहुत ही हल्के स्तर के ‘सरदारों पर चुटकुले’ सुनने सुनाने लगे है।
यद्यपि सिख लोग भारत की जनसंख्या में मात्र दो प्रतिशत ही है किंतु स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान, जीवन बलिदान नब्बे प्रतिशत रहा है। ब्रिटिश सरकार ने कुल 120 लोगों को फांसी दी जिसमें 93 सिख थे। कालापानी की जेल में कुल 2646 लोग भेजे गये थे उनमें 2147 सिख थे। जलियांवाला बाग के नरसंहार में कुल। 1300 लोग मारे गये थे उनमें 799 सिख थे। स्वतंत्रता संग्राम के समय ब्रिटिश लोगों ने कुल 4279 लोगों मार डाला था जिनमें 3197 सिख लोग थे। यह आंकड़े प्रमाणित करते है कि सिखों में कितनी राष्ट्रीयता के प्रति समर्पित गौरवमयी शौर्य भावना रही है। किंतु 1947 के पश्चात स्वार्थी, सत्तालोलुप राजनेताओं के लोभ और सिखों के राजनेताओं की अदूरदर्शिता के कारण आज हमारा सिख समाज अपने सनातन धर्म की रक्षा के मूल लक्ष्य से भटक गया है।
यह स्थिति गुरु गोविन्द सिंह और सिख गुरु परंपरा द्वारा मान्य नहीं की जा सकती है । इतना ही नही, आज कल जो सिखों में अलगाववादी लक्षणों का उदय हो रहा है वह वस्तुतः सिख गुरुओं के महान आदर्शों और मूल लक्ष्य के विपरीत है।
इसे कैसे दूर किया जा सकता है?
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.