शिवाजी का अंतिम समय
दुर्भाग्य से शिवाजी के उत्तराधिकारी उतने सक्षम शासक नहीं थे[1]। उनका पुत्र संभाजी अयोग्य था। अपने पिता की मृत्यु के समय संभाजी की आयु बाईस वर्ष थी। किंतु उस समय तक वह अनेक दुर्गुणों का शिकार हो चुका था। एक बार तो वह अपने पिता के विरुद्ध ही खड़ा हो गया। शिवाजी का दूसरा पुत्र राजाराम अफीम का आदी था। अपने पुत्रों से निराश होकर शिवाजी मानसिक शांति प्राप्ति के लिए अपने गुरु समर्थ रामदास के पास गये, वे वहां उनके साथ सज्जनगढ़ में एक माह तक रहे। अन्ततः 4 अप्रेल 1680 में शिवाजी रविवार के दिन स्वर्गवासी हो गये। ऐसा कहा जाता है कि शिवाजी को उनकी पत्नी ने विष दे कर मरवा दिया था। कहते है कि शिवाजी के व्यक्तिगत धोबी के साथ मिलकर उसने शिवाजी के वस्त्रों पर धतूरे का विष लेपन कर वे वस्त्र शिवाजी को उस समय पहना दिये जब शिवाजी का ज्वर टूट कर उन्हे पसीना छूट रहा था। इस प्रकार जहर उनके शरीर में फैल गया और मात्र 46 वर्ष की आयु में ही शिवाजी की मृत्यु हो गई अर्थात् छत्रपति बनने के मात्र छः वर्ष बाद !!
शिवाजी ने एक पत्र औरंगजेब को लिखा था जिसमें उन्होंने अपने अंतर्मन के विचारों को प्रकट किया था –
ईश्वर सबका मालिक है न कि केवल मुसलमानों का, इस्लाम और हिंदुत्व मात्र दो रंग है जिन्हे मानवप्राणी के चित्रण हेतु वह दिव्य चित्रकार प्रयोग में ला रहा है[2]।
इससे शिवाजी का सर्वधर्म समभाव की सहिष्णुता की ही अभिव्यक्ति होती है। अनेक इतिहासकारो ने शिवाजी की अदम्भ अजेय दृढ़ इच्छाशक्ति की प्रशंसा की है, उदाहरणार्थ यहां जदुनाथ सरकार का कथन दिया जा रहा है –
एक से अधिक अवसरों पर शिवाजी ने बिना विचारे ऐसे दुस्साहस पूर्ण कार्य किये और स्वयं अपने ही हाथों से अपनी वापसी के संसाधनों को नष्ट करने का कृत्य कर दिया था। आज उनके जन्म से तीन सौ वर्षों उपरांत उनके सबसे कटु आलोचक भी यह स्वीकार करते हैं कि यद्यपि उनका साम्राज्य आज अस्तित्व में नही है फिर भी उन्होंने हिंदुओं की आंतरिक शक्ति का एक उदाहरण प्रस्तुत कर दिया था और उनका नाम सदा जीवित रहते हुए लोगों में उसी चेतना के भाव को सदा जागृत करता रहेगा। वे आने वाली पीढ़ी के लिए भी एक आदर्श बने रहेंगे[3]।
शिवाजी ने एक हिंदू साम्राज्य की स्थापना के लिए प्रयत्न किया था। उनके पुत्र ने रामसिंह को जो पत्र लिखा था उससे भी यह स्पष्ट होता है –
यह राज्य ईश्वर और ब्राह्मणों को समर्पित है – हिन्दुस्तान वास्तव में हिंदुओं की भूमि है[4]
तथापि मुस्लिमों के प्रति शिवाजी में कोई दुर्भावना नहीं थी। आर.सी.मजूमदार का कथन है
शिवाजी ने कभी मुस्लिमों के प्रति घृणा भाव नहीं रखा। वह कोई धर्मांध व्यक्ति नहीं था। उसने सभी मत पंथों को समान स्वतंत्रता प्रदान कर रखी थी। उसकी सेवा में जितने हिंदू थे उतने ही उत्साही मुस्लिम भी थे। केल्सी के मुस्लिम संत बाबा याकूत उनके गुरु माने जाते थे। मुल्ला हैदर उनका निजी गोपनीय सचिव था। इब्राहिम खान, दौलतखान तथा सिदि मिस्री उसके नौसेना के प्रमुख थे। उसके राज्य में मुस्लिमों की एक बडी जनसंख्या हिंदुओं के साथ सामंजस्य से रहती थी। मुस्लिम का वैयक्तिक सम्मान करने में शिवाजी स्वयं सम्मानित अनुभव करते थे। अपने रायगढ़ महल के सामने उन्होंने अपने मुस्लिम साथियों के लिए एक मस्जिद का निर्माण भी करवाया था[5]।
शिवाजी ने लगभग 250 नये दुर्ग बनवाये तथा पुराने किलों की मरम्मत करवाई। यह सभी दुर्ग स्थानीय भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप निर्मित किये गये थे।
शिवाजी तडक-भडक और दिखावे को पसंद नही करते थे। तंजावुर में उनके शिविर में आये एक फ्रांसीसी यात्री जिसका नाम जर्मन था लिखता है -
शिवाजी का शिविर एक सामान्य, स्त्री विहीन, बिना माल असबाब केवल सादे कपड़ों के दो तम्बुओं का था जिसमें एक तम्बू शिवाजी का था तथा दूसरा उसके मंत्री के लिए बना था[6]।
अनेक विद्वानों और यात्रियों ने जैसे कि बर्नियर, ट्रेवर्नियर ख़फ़ी खान, ग्रांट-डफ, एल्फिन्स्टन, टेम्पल, एक्वर्थ तथा एडवर्ड ने शिवाजी के अनुशासन तथा व्यवस्था के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की भूरी-भूरी प्रशंसा की है।
मुस्लिम अभिलेखों के अंतरंग जानकार महान इतिहासकार जदुनाथ सरकार कहते है
शिवाजी ने यह सिद्ध कर दिया कि हिंदू समुदाय एक राष्ट्र का निर्माण कर सकता है, एक राज्य की स्थापना कर सकता है, शत्रुओं को परास्त कर सकता है, वे अपनी सुरक्षा, संरक्षण के साथ साहित्य, कला, व्यापार, उद्योग आदि का विकास कर सकते है, वे अपनी नौसेना और व्यापारिक जहाजी बेडे रखकर विदेशियों के साथ बराबरी के स्तर पर व्यापार कर सकते हैं, और युद्ध भी कर सकते है। उन्होंने सिखाया कि किस प्रकार आधुनिक समय में हिंदू अपना विकास कर सकता है और अपने पूर्ण गौरवमयी पद को प्राप्त कर सकता है ।…शिवाजी ने दर्शाया कि सदियों की राजनैतिक गुलामी के बाद भी हिंदुत्व का वृक्ष मरा नहीं है, उसमें अभी भी वह प्राणशक्ति है जो उसे अत्यंत क्षतिग्रस्त स्थिति से भी पुनः पल्लवित कर नई नई शाखाओं के साथ हरा भरा कर सकती है। वह पुनः अपना मस्तक आकाश में ऊंचा उठा सकता है[7]।
वास्तव में शिवाजी एक असाधारण योद्धा थे तथा भारतीय क्षात्र चेतना के प्रखर प्रतीक है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]प्रबुद्ध पाठक यह जानना चाहेगा कि शिवाजी, पूर्व के महान शासक अशोक, कनिष्क, हर्षवर्धन तथा अन्य से किस प्रकार भिन्न है जिन्हे भी योग्य उत्तराधिकारी प्राप्त नहीं हुए थे। इससे सनातन धर्म द्वारा पोषित शौर्य परम्परा पर भी संदेह हो सकता है। इस संबंध में मेरा स्पष्टीकरण यह है कि यद्यपि शिवाजी के वंशज योग्य नहीं थे तथापि उनके द्वारा पोषित सनातन धर्म परम्परा ने जिस मराठा शौर्य शक्ति का जागरण किया था वह अगले 150 वर्षों तक पूरे देश में जगमगाती रही और उसने कई राजवंशों को जन्म दिया। ज्ञान और शौर्य वस्तुतः यही सनातन धर्म की पहचान है।
[2]द हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इंडियन पीपल, खण्ड 7, पृष्ठ 274
[3]‘हाउस ऑफ शिवाजी’, कलकत्ता, एस.सी. सरकार एण्ड संस, 1948 पृष्ठ – 103-4, 113
[4]द हिस्ट्री एण्ड कल्चर आफ इंडियन पीपल, खण्ड 7 पृष्ठ 276
[5]द हिस्ट्री एण्ड कल्चर आफ इंडियन पीपल, खण्ड 7 पृष्ठ 276
[6]द हिस्ट्री एण्ड कल्चर आफ इंडियन पीपल, खण्ड 7 पृष्ठ 277
[7]शिवाजी एण्ड हिस टाइम्स, कलकत्ता, एम.सी.सरकार एण्ड संस 1929 पृष्ठ 406