अजेय सम्राट : छत्रसाल
अतुलनीय शौर्य का एक और उदाहरण बुंदेलखंड का सम्राट छत्रसाल है। इसके कारण औरंगजेब तक भयभीत था। बुंदेलखंड का नाम उस क्षेत्र की देवी विंध्यवासिनी से मिला है। लोक कथा के अनुसार वहां के शासक ने अपनी सारी संपदा अपने पांचवें पुत्र पंचम को सौंप दी थी, इससे क्रोधित हो कर उसके शेष चारो भाइयों ने मिलकर पंचम से राज्य छीन लिया। तब पंचम ने विंध्याचल स्थित एक शक्ति पीठ देवी विंध्यवासिनी की उपासना की और जब वह देवी को अपने प्राणों की बलि देने जा रहा था तो देवी ने उसे रोक दिया। उस समय उसकी तलवार से उसके हाथ पर चोट लगने से पृथ्वी पर खून की कुछ बूंदें गिर गई। वह भूक्षेत्र जहां यह रक्त की ‘बूंदे’ समाई थी ’बुंदेल’ (बूंद + इला) कहलाया। वह क्षेत्र जो नर्मदा और चम्बल नदी के मध्य स्थित है, महाभारत काल में चेदी राज्य कहलाता था।
छत्रसाल का पिता चम्पतराय शौर्यवान तथा उदार व्यक्ति था। उसकी माता लालकुमारी थी। शत्रुओं के षड्यंत्र के कारण मात्र चौदह वर्ष की आयु में छत्रसाल ने अपने माता पिता को खो दिया। कहा जाता है कि इसके बाद छत्रसाल अपने चौरासी वर्षों (84) के लम्बे जीवन काल तक निरंतर रूप से युद्ध करता रहा और उसने एक भी युद्ध नहीं हारा। अपने पुत्रों तथा पोतों के साथ उसने शांति पूर्वक देह त्याग किया था।
यद्यपि उसका साम्राज्य एक सीमित क्षेत्र में ही था किंतु उनकी उपलब्धियॉ सराहनीय थी। उसने दंभेर, सिरोंज गिल, गौण, पिरहाट, घोर्सगर हनुतक, लाखेरी तथा बड़िहार को अपने अधीन कर लिया था। उसने शक्ति और संपदा का अच्छा संचय किया था।
एक बार जब छत्रसाल शिकार करने गए थे तो जंगल में अचानक उन्हे मुगल सेनापति सैयद बहादुर ने अपनी सेना के साथ उन पर आक्रमण कर दिया। उस समय छत्रसाल के पास मात्र पॉच सैनिक थे। फिर भी छत्रसाल और उसके सैनिकों ने लडकर मुगलों की संपदा छीन ली।
बाद में छत्रसाल ने अनेक शहर और कस्बों को जीत कर बुंदेलखंड साम्राज्य का विस्तार किया। उसने औरंगजेब के विश्वसनीय रणदुल्लाखान नामक सेनापति को पराजित किया था। उसने दिलेरखान, अब्दुल समद और बहलोल खान को भी हराया। वह गुरिल्ला युद्ध कौशल का एक कुशल योद्धा था। उसके जीवन काल में ही औरंगजेब की मृत्यु हो गई थी। सन् 1707 में औरंगजेब का पुत्र बहादुर शाह बादशाह बना किंतु वह एक दुर्बल शासक था। उसने छत्रसाल से सहायता भी मांगी थी किंतु छत्रसाल ने मना कर दिया। छत्रसाल भारतीय क्षात्र चेतना के प्रतीक रूप में एक लम्बे समय तक सार्थक जीवन यापन करता रहा। भारतीय इतिहास के इस संकटग्रस्त समय में उसके समान हमें अधिक राजाओं के उदाहरण नहीं मिल पाते है क्योंकि इस काल में हमें ऐसे लोगों का आधिक्य मिलता है जो या तो हार गये थे या जिन्होंने स्वयं का बलिदान कर दिया था या जौहर किया था।
अतः यदि इतिहास हमें केवल उन राजाओं का वर्णन प्रदान करता है जो हिंदू इतिहास में हारे हुए राजा रहे है तो यह सत्य से विमुख होना है। हिंदू इतिहास विजय गाथा भी है। ऐसे भी अनेक राजा हुए है जिन्होंने अपने शत्रुओं को अपने सीमा क्षेत्र से बहुत दूर तक बने रहने को बाध्य किया था जो एक असाधारण उपलब्धि थी। भारत के देशवासियों को इनके साहस की कहानियों से अवगत होने की आवश्यकता है।
प्रारंभिक काल में छत्रसाल ने भाई ने उन्हे औरंगजेब के दरबार की सदस्यता स्वीकार कर लेने हेतु सहमत कर लिया था किंतु शीघ्र ही वहां हिंदुओं और मुस्लिमों के मध्य के भेदभाव पूर्ण व्यवहार से उनका मोहभंग हो गया। उसी समयावधि में शिवाजी आगरा के किले से बच कर निकल गए। इस बात से प्रेरणा पाकर छत्रसाल चुपचाप वहाँ से भाग निकले और उन्होने शिकारियों के एक समुदाय के साथ भीमा नदी पार कर शिवाजी से आ मिले। छत्रसाल ने शिवाजी के नेतृत्व में मुगलों से लडने की अपनी इच्छा व्यक्त की तब शिवाजी ने उन्हें समझाया कि ‘मै दक्षिण का हू और तुम उत्तर भारत के हो। हमे एक ही स्थान से औरंगजेब पर आक्रमण करने की जगह पर दुतरफा वार करना चाहिए अतः तुम उत्तर में तथा मै दक्षिण में विभिन्न स्थानों से अधिक प्रभावी ढंग से मुगलों पर आक्रमण कर सकते है’ । छत्रसाल ने शिवाजी की इस दूरदृष्टि पूर्ण सलाह को मान कर बुंदेलखंड में वापसी की। मित्रता के प्रतीक रूप में शिवाजी ने छत्रसाल को अपनी विशिष्ट तलवार भेंट में दी थी।
औरंगजेब द्वारा आदेशित अमानवीय इस्लामिक नियमों का छत्रसाल ने विशेष रूप से विरोध किया। इस्लाम के अंध भक्त औरंगजेब ने शरिया कानून अपनी प्रजा पर लाद दिया था। कहा जाता है कि औरंगजेब इस्लाम के अनुसार एक साधारण जीवन जीता था, वह युद्ध भूमि में भी नमाज पढ़ता था। वह इस्लाम के अनुसार शराब नहीं पीता था तथा एक समय में केवल चार बेगमें ही रखता था। कहने की आवश्यकता नहीं कि वह एक ऐसा धर्मान्ध कट्टरपंथी था जिसे प्रेम, दया और उदारता जैसे मानवीय सद्गुणों से कोई मतलब नहीं था। वस्तुतः इस्लाम की मूल अवधारणा में सांप्रदायिक कट्टरवाद के अतिरिक्त अन्य किसी भी मान्यता को कोई स्थान नहीं दिया गया है।
दुर्गादास राठौड़ और दारा शिकोह
दुर्गादास राठौड़ उसी स्तर के योद्धा थे जैसे कि छत्रसाल थे। वह मारवाड़ के राजा जसवंतसिंह के मंत्री तथा प्रमुख सेनापति थे। जसवंतसिंह की मृत्यु उपरांत, दुर्गादास को उनके पुत्र का शासन सुरक्षित रखने हेतु औरंगजेब से अनेक अवसरों पर युद्ध करना पड़ा था। सन् 1670 में दुर्गादास ने सभी राजपूतों को एकत्रित कर जोधपुर का युद्ध औरंगजेब के विरुद्ध लड़ कर उसे जीता तथा औरंगजेब के पुत्र को बंदी बना लिया। बाद में औरंगजेब ने धोखा भी किया फिर भी दुर्गादास ने पुनः राजपूतों को इकट्ठा कर फिर से इस धूर्त शत्रु को परास्त किया था।
अकबर अपने साम्राज्य को कुशलता पूर्वक चला सकने में इसलिए सफल रहा था क्योंकि उसने हिंदुओं के साथ सद्व्यवहार करने का प्रयास किया था। अपनी प्रौढ़ अवस्था में वह शाकाहारी हो गया था, ऐसा कहा जाता है कि वह हिंदुओं के पुनर्जन्म की धारणा में भी विश्वास करने लग गया था तथा इस्लाम के सभी सिद्धांतों के प्रति कट्टर समर्पण नहीं रख पाया था। इस्लाम को न मानने वाले लोगों को वह अधर्मी अथवा काफिर नही मानता था। उसने हिंदुओं पर लगा जजिया कर भी माफ कर दिया था। उसके उत्तराधिकारियों ने कुछ समय तक तो इस माफी को बनाए रखा किंतु बाद में उन्होंने इसे पुनः लागू कर दिया था। इस दृष्टि से जहांगीर अपने पुत्र शाहजहां से अधिक अच्छा था। वह अकबर और औरंगजेब का एक विचित्र मिश्रित चरित्र था।
शाहजहां का सबसे बड़ा योगदान उसका पुत्र दारा शिकोह था। दारा बहुत अच्छे स्वभाव का एक बुद्धिमान और उदार हृदय व्यक्ति था। यदि वह दिल्ली का शासक बन जाता तो संभवतः वह एक अच्छे क्षात्र सम्राट के रूप में प्रसिद्ध होता। किंतु औरंगजेब ने विश्वासघात करते हुए सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया। उसने दारा शिकोह का मस्तक काट कर अपने बंदी पिता शाहजहां को उपहार स्वरूप भेजा था। दारा शिकोह सनातन धर्म का बड़ा सम्मान करता था। उसने उपनिषदों का फारसी भाषा में अनुवाद करवाने में मुख्य भूमिका निभाई थी। इन्ही अनुवादों के माध्यम से पाश्चात्य दार्शनिक जैसे शोपेनहावर आदि उनके लैटिन रुपान्तरणों के माध्यम से वेदांत की महानता से परिचय प्राप्त कर सके। संभवतः शाहजहां के दरबार में प्रख्यात संस्कृत के कवि और विद्वान पंडितराज जगन्नाथ का दारा शिकोह शिष्य था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.