अप्रतिम योद्धा महाराजा रणजीत सिंह
सिखों के योद्धाओं की परम्परा में महाराजा रणजीत सिंह का नाम भी श्रेष्ठतम योद्धाओं में लिया जाता है। महाराजा रणजीत सिंह ने ही उत्तर पश्चिमी क्षेत्र (अफगानिस्तान और उसका निकटवर्ती क्षेत्र) में सनातन धर्म की पुनर्स्थापना की थी। मुगल साम्राज्य के पतन के उपरांत ब्रिटिश लोगों के लिए वह एक बड़ी चुनौती बन गये थे। 13 नवम्बर 1780 में जन्मे रणजीत सिंह की एक आंख बचपन में चेचक के कारण नष्ट हो गई थी। उनके व्यक्तित्व की तेजस्विता और तीव्रता इतनी अधिक थी कि उसके निकटवर्ती लोग भी यह तय नहीं कर पाते थे कि उनकी कौन सी आंख खराब है। यद्यपि वह अनपढ़ था किंतु युद्ध कला में वह उच्च स्तरीय प्रशिक्षण प्राप्त कर चुका था, जब वह 21 वर्ष का था तब ही उसने सिख साम्राज्य के स्थापना का दृढ़ निश्चय कर लिया था। तदनुसार लाहौर में उसे ‘महाराजा’ की पदवी से अलंकृत किया गया। लोगों में वह शेरे-पंजाब के नाम से प्रसिद्ध था। अपने शौर्य से उसने अफगानिस्तान के अनेक भागों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने पुरुषपुर (पेशावर) पर हमला कर वहां के शासक मोहम्मद खान को भगा दिया। किंतु उसने यह कठोर नियम बना दिया था कि पराजित राज्य को लूटा नहीं जावे।
पुरुषपुर पर सात सौ वर्षों के लम्बे अन्तराल के उपरांत हिंदू नियंत्रण में आया था। किंतु जब उसने सिंध को भी जीत लिया तो ब्रिटिश लोग इसे सहन नही कर सके। रणजीत सिंह ने उनकी परवाह न करते हुए खैबर के दौरे तक अपना साम्राज्य विस्तार किया। किंतु जब उसने कांगड़ा घाटी पर आक्रमण किया तो उसे गोरखाओं के भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। गोरखाओं के शौर्य से प्रसन्न हो कर उसने उन्हे अपनी उदारता से जीत लिया। इस प्रकार रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य का विस्तार झेलम नदी से खैबर दर्रे तक और तिब्बत से सिंध तक कर लिया था।
रणजीत सिंह ने भूमि कर में सुधार किये तथा कृषि सहायक नदियों को लागू किया। प्रारंभ के दिनों में यद्यपि सिख सेना में वीरों की कमी नहीं थी, किंतु उसकी संगठनात्मक व्यवस्था ठीक नहीं थी। ब्रिटिश सेना में यद्यपि कम लोग थे किंतु वह एक बहुत ही संगठित सैन्य बल था। अपनी इस कमजोरी को पहचान कर चतुर रणजीत सिंह ने वेष बदल कर ब्रिटिश सेना की व्यवस्था, प्रशिक्षण आदि का निरीक्षण किया, उससे सीखा तथा उन्ही तौर तरीकों को अपनी सेना पर भी लागू किया। उसने ब्रिटिश विरोधी विभिन्न राष्ट्रों के सैन्य अधिकारियों को नियुक्त किया जिनमें फ्रांस, इटली, जर्मनी, ग्रीक और अमेरिका के लोग थे। अपनी सेना को तैयार करने में रणजीत सिंह ने इस सीमा का चातुर्य दिखाया था।
रणजीत सिंह ने एक सुपरिभाषित नीतियों तथा दृढ़ नियमों के साथ पंचायती राज की व्यवस्था को लागू किया था। एक जर्मन यात्री कार्ल वॉन ह्युजन लिखता है – “रणजीत सिंह के राज्य में अपराधियों की संख्या कम थी। उसने सडको, चिकित्सालयों, धर्मशालाओं तथा विद्यालयों का निर्माण किया था। उसके लिए सभी धर्म सम्माननीय थे।”
रणजीत सिंह की स्मरण शक्ति आश्चर्यजनक थी। अपने अधिकार क्षेत्र के 1200 गांवों के नाम तथा वहाँ की स्थिति का ज्ञान सदैव उसकी स्मृति में बना रहता था। वह अक्सर हंसी हंसी में कहा करता था कि भगवान ने उसकी एक ऑख इसलिए ले ली ताकि वह सब धर्मों को एक दृष्टि से देख सके।
उसके राज्य में कानून सबके लिए समान थे। इस निर्भीक क्षत्रिय ने गुरु नानक के सम्मान में ‘नानकशाही’ नाम से सिक्कों का निर्माण कर पाया था और अपने दरबार का नाम ‘खालसा दरबार’ रखा था।
एक बार एक धर्मांध क्रिश्चियन मिशनरी जोसेफ उल्का उसके राज्य में आया और उसने ईसाई धर्म को न मानने वाले सभी लोगों को डरपोक सिद्ध करते हुए उन्हें ईसाई धर्म स्वीकार करने हेतु दबाव बनाया। जब इस बात की सूचना रणजीत सिंह तक पहुंची तो उन्होने उस पादरी को बुला कर कहा – “जब तुम हाथी पर बैठ कर सिंधु नदी पार कर रहे थे तब तुम भी अपनी ईश्वरीय आस्था के बाद भी डर से क्यों कांप रहे थे?” उसे अच्छे से नसीहत देते हुए रणजीत सिंह ने दहाड़ते हुए कहा कि ‘सभी को अंधे होकर डरपोक मानने की भूल मत करना’
एक बार उनकी जीवन संगिनी ने उन्हें चिढ़ाते हुए पूछा ‘आप सुंदर नहीं हो, जब भगवान सबको समान रूप से सौन्दर्य बांट रहा था तब तुम कहा चले गये थे?’ तत्काल ही इसका उत्तर रणजीत सिंह ने दिया ‘मै अपने एक मात्र लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर सिख साम्राज्य के खालसा दरबार के निर्माण कार्य में व्यस्त था’ । सभी दृष्टि से रणजीत सिंह जो 60 वर्षों तक जीवित रहा एक प्रचण्ड योद्धा तथा कुशल प्रशासक था।
ब्रिटिश लोगों के साथ रणजीत सिंह अधिक राजनीतिक कौशल दिखला सकता था। वह उन्हें देश से बाहर निकालने में पूर्णतः सक्षम था किंतु यह एक कटु सत्य है कि यदि वह ब्रिटिश लोगों से सीधे युद्ध करता तो उसके सभी शत्रु मुस्लिम शासक एक होकर उसके विरुद्ध खड़े हो जाते । संभवतः यह भी एक कारण था जिससे वह ब्रिटिश लोगों से सीधे तौर पर नहीं लड़ पाया। फिर भी रणजीत सिंह की यह नीति सही नहीं थी। यद्यपि वह किसी भी समय ब्रिटिश प्रभुता के अधीन नहीं रहा। वह सदैव उनके समान धरातल पर रह कर व्यवहार करता रहा। अपने जीवन के अंतिम समय में विश्व विख्यात कोहिनूर हीरा उसके आधिपत्य में आ गया था जिसे उसने रानी विक्टोरिया को उपहार में दे दिया।
इस प्रकार के कार्य अधिकांश बड़े लोगों की नासमझी पूर्ण रुचि के कारण हो जाते है।
रणजीत सिंह के मूल्यांकन में यह अंतिम रूप से कहा जा सकता है कि उसने गुरु गोविंद सिंह के सपनों को पूर्ण साकार रूप प्रदान करने में खालसा पंथ को उनके वैभव के उच्च शिखर पर पहुंचाने का अप्रतिम गौरव प्राप्त किया था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.