छत्रपति शिवाजी :- हिंदू धर्म के पथ प्रदर्शक
दक्षिण भारत में क्षात्र चेतना की परम्परा के एक और महानतम उदाहरण हिंदू धर्म के ध्वजवाहक शिवा-महाराज अर्थात छत्रपति शिवाजी रहे हैं। शूद्र माने जाने वाले भोंसले वंश में शिवाजी का जन्म हुआ था। शिवाजी का मूल उद्गम मेवाड़ के सिसोदिया समुदाय से रहा है अतः उन्हें राणा प्रताप परम्परा से जोड़ा जा सकता है।
उनकी माता जीजाबाई देवगिरि के यादव (अथवा जाधव) वंश की थी। शिवाजी के पिता शाहजी ने यद्यपि भाड़े के सैनिक के रूप में अपनी आजीविका प्रारम्भ की थी किंतु क्रमशः वह सरदार के पद तक पहुंच गया था। शाहजी बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत के प्रति वफादार रहे तथा उन्होने सनातन धर्म के लिए कुछ भी नहीं किया। वह बेंगलुरु और कोलार क्षेत्र में कुछ वर्षों तक शासन करता रहा था, उस समय शिवाजी भी उसके साथ था।
जब जीजाबाई गर्भवती थी तब लोगों के निर्देशों की उपेक्षा करते हुए वह अपने पति के साथ जंगलों के मार्ग से यात्रा करती रही और उस समय उन्होंने शिवनेरी के घने जंगलों में शिवाजी को जन्म दिया था। जीजाबाई ने शिवाजी को बाल्यकाल से ही साहस और वीरता युक्त कहानियां सुना कर पाला पोसा था।
विद्यारण्य की छोटी बहन सिंगला ने अपने पुत्र लक्ष्मीधर को यह उपदेश दिया था जब वह बड़ा होकर कुछ बड़ा कार्य करना चाहता था और अंततः वह विजयनगर साम्राज्य का अमात्य (मंत्री) बना भी था –
तालाबों का निर्माण करो, कुएं खुदवाओ, मंदिरों को बनवाओ और साथ में विश्राम गृह भी। संकटग्रस्त अनाथों को मुक्ति दो, मित्रों का भला करो, अपने पर विश्वास करने वालों के प्रति निष्ठावान रहो[1]
जीजाबाई ने प्रारम्भ से ही शिवाजी को सनातन धर्म से अवगत करवा दिया था। देवगिरि के यादव योद्धाओं, मेवाड़ के राजपूतों की वीरता युक्त कहानियों के साथ ही उन्होंने शिवाजी को रामायण और महाभारत की कथाओं से भी परिचय करा दिया था। शिवाजी को सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए शाहजी ने दादाजी कोंडदेव नामक एक सैनिक को नियुक्त किया था, दादाजी ने शिवाजी को सैन्य प्रशिक्षण के साथ शास्त्र प्रशिक्षण भी प्रदान किया। यद्यपि शिवाजी ज्यादा लिखना-पढ़ना नहीं कर पाए किंतु उन्होंने ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
यद्यपि हमारे पूर्वज अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे तथापि उनमें उच्च स्तरीय ज्ञानपूर्ण समझ थी। आजकल अनेक लोग उच्च स्तर की पढाई व प्रशिक्षण प्राप्त कर लेते है किंतु वास्तविक अर्थों में नासमझ ही बने रहते है।
शिवाजी ने अपने सैनिकों के लिए रामायण का युद्ध काण्ड पढ़ना अनिवार्य कर दिया था। उन्होंने अरावली क्षेत्र की मवाली जनजाति के लोगों से अपनी सेना का निर्माण किया था। अपने बाल्यकाल से प्राप्त संस्कारों के कारण उनमें हर संकट को पार कर सकने की शक्ति और क्षमता का विकास हो गया था।
ब्राह्मणों को निष्प्रभावी करने के लिए मुगलों ने सतत रूप से अपने प्रयासों को तेज किया और शाहजी, जीजाबाई तथा उनके पुत्र शिवाजी को बंदी बनाने का प्रयास किया। पुत्र की सुरक्षा करने की दृष्टि से जीजाबाई ने बंदी बनना स्वीकार किया। एक भारी रकम चुकाने के बाद अंततः उन्हे मुक्त करा लिया गया। शाहजी ने जीजाबाई जैसे त्यागी और दयालु पत्नी को त्याग कर दूसरा विवाह कर लिया और जीजाबाई को लगभग भुला ही दिया। अपने पति एवं रिश्तेदारों की पूर्ण उपेक्षा के कारण बहादुर और साहसी जीजाबाई को अब अपने पुत्र का ही सहारा रह गया था। जीजाबाई को अपने देश के लिए एक महान सपूत प्रदान करने का श्रेय जाता है।
शिवजी भी बेंगलोर आये थे और उन्होंने काडुमल्लेश्वर मंदिर के दर्शन भी किए थे। सन् 1658 में, तालिकोट के क्रांतिकारी युद्ध के सौ वर्षों के पश्चात शिवाजी ने राक्षस तंगड़ी और हम्पी की यात्रा की। वहाँ उन्होने समृद्ध विजय नगर साम्राज्य के नष्ट किये गये अवशेषों का निरीक्षण किया तथा इस दुखद दृश्य से प्रेरणा प्राप्त की। शिवाजी ने विजयनगर साम्राज्य के प्रशासकीय व्यवस्था को भी अपनाया। मुगलों की स्थिर प्रशासकीय व्यवस्था के स्थान पर शिवाजी ने अपने राज्य में आधुनिक और विकासशील प्रशासकीय व्यवस्था को प्राथमिकता प्रदान की। जिस प्रकार विजयनगर साम्राज्य को मुनि विद्यारण्य का मार्गदर्शन प्राप्त था, ठीक वैसे ही शिवाजी को समर्थ रामदास का आशीर्वाद प्राप्त था। समर्थ रामदास ने शिवाजी को कोई राजनैतिक सलाह नहीं दी, उन्होंने वेदांत के उच्चतम शिखर से प्राप्त दूर दृष्टि से शिवाजी को दीक्षित कर दिया। शिवाजा वारकरी संप्रदाय के महान ज्ञानी और भक्त तुकाराम के सत्संग में भी नियमपूर्वक जाया करते थे।
ब्राह्मण वंश में जन्में समर्थ रामदास वैराग्य की साक्षात मूर्ति बन गये तुकाराम एक दर्जी के घर पैदा हुए थे जो शूद्र में माना जाता है फिर भी एक महान भक्त और संत बन गये। समाज में इन दोनों संतों का समान रूप से सम्मान तथा आदर किया जाता है। इस प्रकार शिवाजी के समय में निवृत्ति तथा प्रवृत्ति का सुखद सामंजस्य देखने को मिलता है।
निजामशाही ने जीजाबाई के माता, पिता, भाई और परिवार के सभी बच्चों की भरे बाजार हत्या करवा दी थी। पलटन का सुल्तान चाहता था कि जीजाबाई का समुदाय इस्लाम स्वीकार करें। मुस्लिम शासकों के ऐसे हिंसक अत्याचारों ने जीजाबाई को क्रोध से भर दिया था। बीजापुर सुल्तान की सेवा करने के कारण जीजाबाई अपने पति शाहजी से भी घृणा करने लगी थी। पति-पत्नी में इस संबंध में बहुत विवाद होता रहता था।
एक बार शाहजी अपने पुत्र शिवाजी को बीजापुर सुल्तान के दरबार में ले गए और उन्हें ‘मुजरा’ (झुककर सलाम करना) करने को कहा इस पर शिवाजी ने कहा कि मै केवल अपने माता, पिता, गुरुजनों और बड़ों को ही प्रणाम करता हूं, इस व्यक्ति को नही!
जब वे सुल्तान के पास जा रहे थे तब मार्ग में उन्होने एक कसाई को गाय का वध करने का प्रयास करते देखा तो तत्काल उन्होंने कसाई के दोनो हाथ काट दिये। भारतीय परम्परा के अनुसार एक राजा का कर्तव्य है कि वह गौ वंश तथा ब्राह्मणों की रक्षा करें क्योंकि गाय में सब देवों का वास होता है और ब्राह्मण शाश्वत मूल्यों के संरक्षक होते हैं। शिवाजी ने आजीवन इस नियम का पालन किया था।
शिवाजी शूद्र परिवार में जन्में तथापि सनातन धर्म के प्रति उनका प्रेम और समर्पण असाधारण था। औरंगजेब को लिखे पत्रों में उन्होंने अपने नाम के साथ ‘गौ तथा ब्राह्मण रक्षक’ की समानार्थी उपाधियों का उपयोग किया है। उन्होंने मावली क्षेत्र के युवाओं को लेकर एक सशक्त सेना का निर्माण किया। इतना ही नही प्रहलाद की भांति उन्होंने धर्म के लिए अपने पिता से भी युद्ध किया।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]‘विभूतिपुरुष विद्यारण्य’ पृष्ठ 96