मराठों का वर्चस्व
शिवाजी के मरणोपरांत उनके पुत्र और पौत्रों ने मुगलों का कुछ सीमा तक विरोध किया था। वस्तुतः जो वास्तविक कार्य था वह शिवाजी की प्रेरणा से युक्त प्रशासकों ने किया था। उन्होंने मुगलों को गुरिल्ला रणनीति द्वारा परेशान कर दिया। औरंगजेब की मृत्यु के उपरांत तो मुगल साम्राज्य बडी तेजी से समाप्त होने की कगार पर आ गया। इस काल में पेशवाओं का उदय हुआ और उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात शिवाजी का पौत्र साहू जेल से आजाद हो गया। सन् 1707 में सतारा में उसका राज्याभिषेक किया गया। सन् 1713 में साहू ने प्रथम पेशवा के रूप में बालाजी विश्वनाथ को नियुक्त किया जो अति प्रतिभा शाली, बुद्धिमान तथा तेज तर्रार व्यक्ति था। यद्यपि केवल सात वर्ष पश्चात सन् 1720 में ही उसकी मृत्यु हो गई तथापि उसने मराठों के लिए महाशक्ति बनने के मार्ग खोल दिए। जिन मराठों को अनियंत्रित रूप से लूटने की आदत पड़ गई थी और जिसके लिए वे बदनाम हो गये थे उन्हे बालाजी विश्वनाथ ने अपने नियंत्रण में लिया। उसने मराठा साम्राज्य का विस्तार गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, काशी और गया तक किया।
उसके उपरांत उसके पुत्र बाजीराव ने शासन संभाला। उसके बचे हुए मुगलों को इतना रौंदा कि उन्होंने अधीनता स्वीकार कर ली। उसने दक्षिण के निजाम पर भी अपना नियंत्रण स्थापित किया। सन् 1731 तक बाजीराव ने मुगलों को लगभग पूर्णतः निष्प्रभावी कर बुंदेल खण्ड पर अपना अधिपत्य प्राप्त किया। उसकी क्षमता साहस और शक्ति अद्वितीय थी किंतु उसमें प्रशासन के प्रति वैसा उत्साह और कौशल नही था। इसके उपरांत भी उसके समय में सनातन क्षात्र परम्परा को अभूतपूर्व पोषण प्राप्त हुआ।
बाजीराव का पुत्र नाना साहेब 1740 में शासनारुढ़ हुआ। अपने पिता के समान वह भी बुद्धिमान और शौर्यवान व्यक्ति था। किंतु अपने पिता की तरह युद्ध भूमि की विभीषिका के मध्य रहने के कौशल से वह वंचित था। उसकी विशेषता प्रशासन, रणयोजना और सनातन धर्म के प्रति समर्पण में व्यक्त होती थी। उसने राजस्थान, बंगाल और तमिलनाडु पर आधिपत्य किया था।
सन् 1749 में साहू के मरणोपरांत पेशवा लोग स्वयंभू अधिपति हो गये। पेशवा लोग ब्राह्मण थे तथा मंत्री पद का कार्य करते रहे थे। पानीपत की तीसरी लड़ाई (सन् 1761) में नाना साहेब युद्ध में अहमदशाह अब्दाली से हार गये इससे ब्रिटिश लोगों का प्रभुत्त्व बढ़ गया। सभी सीमावर्ती मराठा प्रांत टूटने लगे, और झांसी, ग्वालियर, सूरत, जिन्जी, और बड़ौदा में नये नये शासकों का उदय हो गया। अंतिम रूप से मराठा साम्राज्य इस प्रकार विभाजित हो गया कि बड़ौदा में गायकवाड, ग्वालियर में सिंधिया, इंदौर में होलकर तथा नागपुर में भोंसले शासक बन गये।
मराठाओं की एकता टूट गई। ब्रिटिश शासन की शक्ति बढ़ती जा रही थी तथा मराठा युग अपने पतन की ओर जा रहा था।
मराठा युग की यह विशेषता रही कि इसमें शिवाजी के समान कोई दूसरा सम्राट नहीं हुआ जिसने ब्रह्म-क्षात्र समन्वय को उसके शिखर तक पहुंचाया हो। उसके समान किसी अन्य शासक ने साम्राज्य का वैसा विस्तार नही किया, न शत्रुओं का संहार किया, और न वैसा प्रशंसनीय प्रशासन प्रदान किया।
बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव तथा नाना साहेब यद्यपि युद्द कौशल तथा उपनिवेशवादी साम्राज्य विस्तार में कुशल थे किंतु वे स्वयं को जनकल्याण कारी शासक के रुप में सिद्ध न कर सके। मराठा काल में क्षात्र चेतना, धन लोलुपता और विलासिता के कारण क्षतिग्रस्त हुई है। यदि मराठा लोग अपनी इस बुराईयों को दूर कर पाते तो मराठा साम्राज्य एक वास्तविक बृहद्भारत की कल्पना को वैसे ही साकार कर पाता जैसा कि गुप्त साम्राज्य तथा विजयनगर साम्राज्य द्वारा किया गया था। किंतु इसके लिए मात्र पेशवा दोषी नही है। इसके लिए उनके उच्च अधिकारी और उनके चाटुकार लोग इसके लिए बराबरी के जिम्मेदार लोग है। यद्यपि मराठों के पतन के लिए हम उनकी वासना और घृणा की पाशविक वृत्ति को दोष दे सकते है किंतु यहां यह समझना होगा कि मराठाओं की मनोवृत्ति पर लम्बे समय तक मुगलों के असभ्य, अनियंत्रित लूटपाट, विलासिता पूर्ण कृत्यों का प्रभाव पड़ता रहा था। अतः इसमें कोई आश्चर्य नही होना चाहिए कि मराठा शासकों के सुलतानो और नवाबों का अनियंत्रित अधार्मिक आचरण, राजर्षियों के कठिन आचरण से कहीं अधिक आकर्षक प्रतीत हुआ हो।
सर्वव्यापि क्षात्र चेतना
अल बेरुनी के लेखन में भारत में मुस्लिमों के आगमन के पहले सन्दर्भ प्राप्त होते है। वह महमूद गजनी के समय में भारत आया था तथा वह महमूद के दरबार का एक विद्वान व्यक्ति था। उसने भारत में व्यापक स्तर पर यात्राऍ की तथा इस संबंध में उसने बहुत प्रभावशाली ढंग से विस्तार में लिखित अभिलेख संग्रह प्रदान किया है। महमूद ने अनेक अवसरों पर खलीफा को लिखा था –
मै भारत पर बारम्बार आक्रमण करके गाजी की उपाधि अर्जित करुंगा, मै इस दर-अल-हर्ब (काफिरों की भूमि) को दर-अल इस्लाम (इस्लाम की भूमि) में बदल दुंगा
ऐसा प्रतीत होता है कि अल बेरुनी को संस्कृत का थोड़ा बहुत ज्ञान था। वह लिखता है –
धर्म के संबंध में हिंदू हमसे बिल्कुल अलग है। उनमें धार्मिक विचारों को लेकर बहुत कम विवाद होते है, ज्यादा से ज्यादा उनमें शाब्दिक लड़ाई होती है किंतु धार्मिक विवादों को लेकर वे कभी भी अपनी संपदा, शरीर या प्राणों को दांव पर नही लगाते है। इसके विपरीत उनकी सारी कट्टरता उनके प्रति होती है जो उनसे अलग है – अर्थात् विदेशी है। वे उन्हें मलेच्छ अर्थात् अपवित्र कह कर बुलाते है तथा उनसे कोई भी संबंध रखना नहीं चाहते है चाहे वह वैवाहिक हो, साथ उठना – बैठना, खाना पीना हो या और कोई भी संबंध हो[1]।
अल बेरुनी आगे लिखता है –
धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति हिंदुओं की आस्था अडिग है तथा अध्यात्म के प्रति उनका विश्वास भी। धर्म के नाम पर हत्या करने वालों से वे घृणा करते है। धर्मांतरण करने वालों से वे दूर रहते हैं।
स्पष्ट हे कि हिंदुओं को बहला फुसला कर उनका धर्मान्तरण करवा पाना अत्यधिक कठिन था। अतः हिंसा ही एकमात्र मार्ग बचा था। चाहे कितनी भी विकट परिस्थितियों में रहे हों किंतु हिंदुओं में भी जो छोटी जातियों के लोग थे उनका भी अपने धर्म के प्रति अडिग विश्वास था तथा अपनी जाति के प्रति समर्पण। गोवि नाम के एक ईसाई मिशनरी ने लिखा है कोई हिन्दू स्वयंप्रेरणा से धर्मान्तरण नही करेगे[2]।
दो शताब्दियों बाद मार्को पोलो भारत आया, वह लिखता है कि चाहे कितना भी लालच दो परय्यार[3] लोगों को गोवा में सेंट थॉमस की समाधि पर लाना असंभव था। बीस और तीस के समूह में भी जब उन्हे लाया जाता तो वे क्षण भर भी समाधि के निकट नहीं बैठते थे।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]सचौ एडवर्ड, अलबेरुनीस इंडिया, खण्ड 1, लंदन, कीगल पॉल, ट्रेंच, ट्रुबनर एण्ड कां. 1910, पृष्ठ 19-20
[2]वेनेशियन यात्री निकोलो मनूची लिखता है – “हिंदुस्तान के हिंदू अपने धर्म के साथ बंधे हुए है..... धर्म इतनी गहराई से जुड़ा है कि उनको अन्य धर्म में धर्मांतरित करना असम्भव है जब तक कि ईश्वर की कृपा ने हो या बल प्रयोग ने किया जावे अन्यथा वे कभी अपना धर्म नहीं बदलते है। कि कोई भी हिंदू स्वेच्छा से अपना धर्म नहीं बदलता है। भारतीय लोगों के बारे में जान कार पादरी बसी कहा करता था कि हिंदुस्तान में तलवार की नोक पर उपदेश देना जरूरी है” स्टोरियां डू मोगर, खण्ड 2 पेज 238
[3]तमिलनाडु में परय्यार लोग दलितों में भी दलित माने जाते है ।














































