भारतीय विद्या भवन द्वारा इतिहास के अनेक खण्ड ग्रंथ भारतीय इतिहास के सत्य को दर्शाने हेतु प्रकाशित हुए है। आर. सी. मजूमदार लिखते है -
सम्पादक का यह प्रयास रहेगा कि वह तीन सिद्धांतों का पालन कर सकें – इतिहास किसी व्यक्ति या समुदाय के सम्मानार्थ नहीं है, इसका लक्ष्य सत्य का वह प्रस्तुतिकरण है जो इतिहासकारों द्वारा मान्य ठोस मानकों पर आधारित हो और तीसरा बिना डर, द्वेष, दुर्भावना, पूर्वाग्रह, या भावावेश, राजनैतिक अथवा मानवीय, अतिरिक्त प्रभावों से निरपेक्ष रहते हुए सत्य को उद्घाटित करे[1]
इस संपादकीय नीति के कारण हिंदुओं और मुस्लिमों के मध्य के मूलभूत वैभिन्य को प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है तथा भारत की मातृभूमि पर इन्हे दो अलग अलग इकाइयों के रूप में विभाजित समुदाय की वास्तविक स्थिति को निरूपित किया गया है।
जहाँ एक ओर मुस्लिमों में धार्मिक कट्टरतावाद वहां हिंदुओं में सामाजिक कट्टरता है। इन बिंदुओं को समझ कर उन्हें सुलझाने की आवश्यकता है, किंतु हमारे प्रख्यात विद्वान लोग तो कुछ कहना तो दूर, संदर्भ तक बतलाने में संकोच कर जाते है जब मुस्लिम शासकों की धर्मांधता के कारण किये गये अत्याचारों का प्रकरण आता है यद्यपि इतिहास में अत्याचारियों के द्वारा किये गये स्वकथनों के अकाट्य प्रमाण उपलब्ध है जैसे कि फिरोज तुगलक और सिकंदर लोदी। ऐसे दृष्टिकोण को उसमें निहित लक्ष्य के लिए प्रशंसनीय कहा जा सकता है किंतु इतिहास इसे अमान्य करता है[2]।
मोहम्मद बिन तुगलक की निर्दयता
इब्न बतूता मोहम्मद बिन तुगलक के बारे में लिखता है – वह हाथियों को उनकी सूंड में कटारें बांध कर कैसे मारना है, इसके लिए प्रशिक्षित करता था। दिल्ली से देवगिरी और पुनः देवगिरी से दिल्ली में राजधानी परिवर्तन का उसका दुर्भाग्य पूर्ण निर्णय सर्व विख्यात है। दस लंबे वर्षों तक वह अपने प्रजाजनों को अकथनीय प्रताड़ना और क्रूरता से सताता रहा। अपने पिता गयासुद्दीन तुगलक से प्राप्त धर्मांध कट्टरता और क्रूरता को उसने सफलतापूर्वक अपने पुत्र फिरोजशाह जो स्वयं एक कट्टरपंथी था, को हस्तांतरित किया था।
कुछ लोगो ने अफवाहों के आधार पर उसे महान विद्वान तथा सहनशील शासक बताने का प्रयास किया है किंतु दशकों से उसे जानने वाले बतूता ने उसे धार्मिक वृत्ति में मदांध एक जिहादी मुसलमान बतलाया है। उसने तुगलक द्वारा अपने साम्राज्य में किये गये अत्याचारों की एक लम्बी सूची दी है कि किस प्रकार वह नित्य प्रतिदिन नये नये प्रकार से लोगों को सताने के कार्य किया करता था। जैसा कि मजूमदार का कथन है कि मुस्लिम लोग चाहे शासन में रहे हों या न रहे हों, उन्होने कभी भी इस्लामिक जिहाद और उसकी क्रूरता को कभी नही छोड़ा है। इतिहास के अध्ययन के समय हमें इस यथार्थ को कभी अनदेखा नही करना है।
इसके पूर्व अलाउद्दीन खिलजी के समय उसका एक सेनापति मलिक नबी काफूर (काफिर का अपभ्रंश) था जो मूलतः हिंदू था तथा बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया था। वह पुनः हिंदू धर्म में वापसी नहीं कर पाया था अतः उसने इसका बदला कैसे लिया ? उसे उच्च ओहदा देकर भारी सेना के साथ दक्षिण भारत पर आक्रमण के लिए भेजा गया !
दक्षिण भारत पर इस्लाम का आक्रमण
दक्षिण भारत के प्रवेश द्वार देवगिरी पर जब मलिक काफूर आया उस समय वहाँ का शासक रामचन्द्र था। अपने प्रारंभिक आक्रमण में मलिक को पर्याप्त सफलता प्राप्त नहीं हो पाई थी किंतु दूसरे युद्ध में कपट और धोखे द्वारा मलिक काफूर ने रामचंद्र को हरा दिया। इसके बाद वह कंपिल राय की आनेगोंदि में आया और वहां उसने भारी रक्तपात किया। इसके उपरांत उसने द्वारसमुद्र (हलेबिडु) के कमजोर होयसल शासक बल्लाल तृतीय पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के समय बल्लाल तृतीय तिरुचिरापल्ली की यात्रा पर बाहर गया हुआ था। संपूर्ण द्वारसमुद्र को तहस नहस कर मिट्टी में मिला दिया गया। इसके तत्काल बाद मलिक काफूर तिरुचिरापल्ली और श्रीरंगम की पवित्र नगरी में आया जहां हिंदुओं के रक्त से सारा क्षेत्र लाल हो गया। मलिक काफूर ने मदुराई पर आक्रमण कर मीनाक्षी मंदिर को तथा सुन्दरेश्वर (सोक्कनाथ) मंदिर को लूटा। इसके बाद रामेश्वरम पहुंच कर उसने वहां एक मस्जिद बनवाई। इतने भयंकर रक्तपात, हत्याओ, लूटपाट तथा बर्बर अत्याचारो के बाद भी वह उस भूभाग पर अधिक समय तक अपना अधिपत्या नही रख पाया।
इतिहासकारों द्वारा दिये गये आंकड़े हमें अचंभित कर देते है ! दक्षिण भारत को लूटने के पश्चात मलिक काफूर दो हजार हाथियों और तीन हजार ऊँटों पर लूट का सामान लेकर वापस लौटा था। हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष विद्वान यह कहते नहीं थकते हैं कि मात्र संपदा के आकर्षण के कारण मुस्लिमों ने आक्रमण किये थे और उनका उद्देश्य न तो हिंदुओं को पीड़ा पहुंचाना था और न उनका धर्मांतरण करना। किंतु यह पूर्ण तथा सफेद झूठ है। धर्म, स्त्री, धन-दौलत, तथा भूमि यह चारो ही प्राप्त करना प्रत्येक मुस्लिम आक्रांता का लक्ष्य रहा है।
इसका सशक्त विरोध करने विजयनगर साम्राज्य उठ खड़ा हुआ था। वह सनातन धर्म की मान्यताओं की शिखर अभिव्यक्ति था।
आठवीं शताब्दी से मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत के विभिन्न भूभागो पर निरंतर रूप से अपने हमले किए थे। यद्यपि विभिन्न कारणों से हम उनका पूर्णतः सामना न कर पाये तथापि कई भूभागों में हम उनका सफलता पूर्वक विरोध करने तथा उन्हे हराने में सफल भी रहे। इन दुष्ट आक्रांताओं का विरोध अनगिन राजाओं तथा समुदाय – प्रमुखों द्वारा किया गया। दक्षिण तथा मध्य भारतीय क्षेत्र में इन मुस्लिम आक्रमणों को शांत करने के बाद हिन्दुओं ने पुनः अपने साम्राज्यों का स्थापन कर लिया था।
हमारी कमजोरी यह रही कि हम उनके मार्मिक केंद्रों पर आक्रमण कर उनका समूल नाश करने में विफल रहे। इतना ही नही हम अपने धर्मान्तरित योद्धाओं को पुनः अपने धर्म में लाने का विचार तक नहीं कर पाए जबकि वैदिक काल से ‘व्रातयज्ञ’ द्वारा कोई भी व्यक्ति हिंदू धर्म स्वीकार कर सकता है फिर भी हम इस सरल उपाय का उपयोग नहीं कर पाये। एक सुनिश्चित व्यवस्थात्मक योजना के अंतर्गत हम हिन्दू जनसंख्या की वृद्धि कर पाने में असमर्थ रहे हैं जो एक बड़ी भूल रही है।
विजयनगर साम्राज्य जो अपनी प्रखरता और उदारता के लिए असाधारण रूप से प्रख्यात था, अळिय (दामाद) रामराय के शासन काल में समाप्त हो गया। रक्कसतंगड़ी (ताळीकोट) की ऐतिहासिक लड़ाई में (1565) दक्षिण भारत का यह अति विनाशक युद्ध लडा गया जो कुछ के मतानुसार महीनों चला और कुछ के अनुसार कुछ ही दिन चला। यद्यपि रामराय एक सुयोग्य शासक था किंतु अपने मनमौजी स्वभाव के कारण उसके कुछ मुस्लिम मित्र भी थे और उसे उनके साम्राज्य में आने जाने की आदत भी थी।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]‘द हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इंडियन पीपल’ पृष्ठ XXX
[2]‘द हिस्ट्री एण्ड़ कल्चर ऑफ इंडियन पीपल’ पृष्ठ XXXI