बुद्ध के समय के सोलह बडे राज्य निम्नानुसार थेः- अंग मगध काशी कोसल वृजिगण (वज्जीगण)[1] मल्लगण[2] चेदी[3] वत्स (बच्च)[4] कुरु पांचाल मत्स्य (मच्च) शूरसेन[5] अश्मक[6] अवन्ती[7] गांधार और काम्बोज इनके अतिरिक्त भी मालवा, मद्र, यौधेय, कोलीय तथा शाक्य जैसे कुछ गणतंत्र थे। जैन ग्रंथों में इनका अनेकबार उल्लेख किया गया है। उस समय भारत कईं छोटे छोटे क्षेत्रों में बट गया था जो अल्पकालिक साम्राज्य या जन जातीय शासकों द्वारा शासित थे। इसके...
साम्राज्य-काल वेदों, इतिहास तथा पुराणों से अब हम तथा कथित ऐतिहासिक काल पर आते हैं। वैसे भी प्राचीन साहित्य तथा लिपिबद्ध इतिहास के मध्य कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं है। वेदो में वर्णित सभी राजाओं की वंश परम्पराएँ, भारतीय इतिहास का ही अंग है। उदाहरणार्थ, वेदो में प्राचीन राजा दिवोदास का उल्लेख है। सुदास उसका पुत्र था। सुदास के राजपुरोहित वसिष्ठ थे। ऋगवेद में दस राजाओं के युद्ध का वर्णन है जंहा विश्वामित्र के नेतृत्त्व में दस राजाओं ने एकसाथ मिल कर...
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इन सबमें अद्धितीय भार्गववंशी परशुराम थे। वे ब्राह्म-क्षात्र समन्वय के श्रेष्ठ प्रतीक है। परशुराम द्वारा दुष्ट क्षत्रियों की सुव्यवस्थित विनाश लीला का वर्णन पुराणों में दिया गया है। शास्त्रानुसार आपद्धर्म[1] के रुप में हर कोई क्षात्र धर्म धारण कर सकता है। महान संत विद्वान विद्यारण्य अपनी पाराशर-स्मृति की टीका में कहते है कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन काल में कभी न कभी क्षात्र भाव को धारण कर सकता है। परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी पर से दुष्ट...
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कालिदास की क्षात्र चेतना कवि शिरोमणि महाकवि कालिदास ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘रघुवंश’ में यह पूर्णतः स्पष्ट किया है कि किस प्रकार एक साम्राज्य में क्षात्र को पोषित किया जाना चाहिए और साम्राज्य की समृद्धि हेतु किस तेजस्विता की आवश्यकता है। कालिदास ने दिलिप तथा रघु जैसे महान राजाओं और अग्निवर्ण जैसे चरित्र हीन तथा अयोग्य राजाओं की तुलना करते हुए स्पष्ट किया कि किन नैतिक सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है। राजा रघु ने चारोंदिशा में विजयपताका फहराते...
इसी शौर्य भाव को हम ऋषि विश्वामित्र में भी देखते हैं जिन्होने राम को क्षात्र दीक्षा प्रदान की थी। एक महर्षि बनने से पूर्व विश्वामित्र ने ब्राह्म के साथ संघर्ष करते हुए ब्राह्म के कठिन पथ के महत्व का अनुभव कर, ब्राह्म क्षात्र समन्वय की महत्ता को समझा। अपने इस अनुभव के उपरांत वे सदैव सत्य के पथ पर चलते हुए अन्ततः आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए। परशुराम जो स्वयं एक ब्राह्मण थे, क्षत्रियों से लड़ते हुए क्षात्र में गहराई से सराबोर थे। वे भी अपने इस...
पुराणों के लक्षणों को दर्शाने वाला प्रसिद्ध श्लोक जो पुराणों की पांच मुख्य विषयवस्तु का वर्णन करता हैः- सर्ग  - मुख्य रचन प्रतिसर्ग  - रचना का विस्तार अथवा प्रलय वंश  - देवताओं, राजाओं तथा ऋषियो के मनवंतर - चौदह मनुओं का समय चक्र वंशानुकीर्तनम - वंशो का यशोगान[1] सार रुप में इस श्लोक द्वारा ब्राह्म तथा क्षात्र के आदर्शों को सतत रुप से संजीवनी प्रदान करते रहने का अभिप्राय है। पुराणों में अन्य छोटे राजवंशों का भी वर्णन है जैसे मगध केकय, जनक...
क्षात्र की भारतीय परम्परा में राजधर्म के दृष्टिकोण को समझने हेतु यंहा हमारे ग्रंथो से धर्म तथा अर्थ संबंधी कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं – अत्रिस्मृति तथा विष्णु धर्मोत्तर पुराण में निम्न पांच महायज्ञ राजा के कर्त्तव्य हैं – दुष्टों को दण्ड़, सज्जनों का सम्मान, न्यायोचित पथ से प्रगति और समृद्धि, जन आकांक्षाओं और प्रश्नों का पूर्वाग्रह रहित न्यायोचित निर्णय, भूमि संरक्षण[1] कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा गया है – सदैव सक्रिय रहना राजा का व्रत...
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शुक्ल यजुर्वेद का एक अन्य श्लोक निम्नानुसार है – मेरे कंधों में बल है, मेरी बुद्धि में बल है मेरी बांहो में, मेरे साहस में कर्म भरा है एक हाथ से कार्य करु, दूजे से शौर्य दिखाऊ मै स्वयं क्षात्र कहलाऊ[1] । इस प्रकार हम अनुभव कर सकते है कि वैश्विक हित में क्षात्र कितना महत्त्वपूर्ण है। यदि कोई क्षात्र भाव से युक्त्त है तो इसका यह अर्थ कदापि नही है कि वह अन्य को क्षति या चोट पहुंचाएगा। क्षात्र भाव हिंसा को प्रोत्साहित नही करता है अपितु इसके...
इन्द्र : क्षात्र का प्रमुख प्रतीक वेदो में इन्द्र को पुरन्दर कहा गया हा अर्थात् शत्रुओं के पुरों का जिसने नाश किया है। यंहा ‘पुर’ शब्द, शत्रुओं के नगरों और किलों के संदर्भ में पुयुक्त है तथापि यह उनके शरीरों के संदर्भ में भी प्रयुक्त हो सकता है। तब पुरन्दर शब्द का उपयोग ‘वह जो तीनों प्रकार के शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण) का नाश करनें में सक्षम हो’ के रुप में होगा। शिव को त्रिपुरारी इसी आशय से कहा जाता है। अतः पुरन्दर शब्द का अर्थ आध्यात्मिक...
जब कभी हम क्षात्र गुण की अनदेखी करते है तब कुछ ऐसे तथा कथित शांतिवादी लोग होते हैं जो इसे हिंसा से जोड़ कर इसे निर्दयी तथा अमानवीय समझते हैं। यह एक त्रुटियुक्त्त दृष्टिकोण है। बिना सुरक्षा ‘मात्स्यन्याय’ (अर्थात् बडी मछली छोटी मछली को खा जाती है) प्रचलन में आ जाता है। इस संबंध में महाभारत के शांतिपर्व में ‘राजधर्मप्रकरण’ पर विस्तृत विवेचना की गई है। हमें समझना होगा कि यदि व्यवस्था चाहिए तो दण्ड़ का प्रावधान आवश्यक है, दण्ड के प्रावधान से ही...